आपका जन्म इलाहाबाद में हुआ है और अब आप यहां रहती हैं तो बचपन की कोई ऐसी बाद जो आपको इलाहाबाद की याद दिला देती है
मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ। वहीं मेरी परवरिश भी हुई। शुरूआती पढ़ाई से लेकर संगीत सीखने तक सब कुछ वहीं हुआ। मेरे पिताजी स्कंद गुप्त और मां जया गुप्ता दोनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाते थे। उनसे पहले मेरे दादाजी भी अंग्रेजी विभाग में ही थे। मेरी मौसी भी अंग्रेजी विभाग में ही थीं। कुल मिलाकर घर पर पढ़ने पढाने का माहौल था। इसके अलावा हमारे पिता जी को खेलों में बहुत रूचि थ। वो क्रिकेट के एक्सपर्ट माने जाते थे। बचपन की एक बात याद करके और उसे आप सभी से साझा करने के बारे में सोचकर ही मजा आ रहा है। आजकल तो हम लोग शहर में रहते हैं इसलिए त्यौहारों का कुछ पता ही नहीं चलता है। त्योहार चाहे होली का हो या फिर दीवाली का, कुछ खास पता नहीं चलता। दीवाली है तो कुछ दिए जला लिए, थोड़ी सी पूजा हो गई। होली है तो थोड़ा रंग-वंग हो गया लेकिन पहले त्योहारों की जो तैयारी होती थी वो अलग ही प्रकार की होती थी। बचपन में होली के त्योहार की एक घटना याद रही है। होली के लिए हमारे पिता जी टेसू के फूल खरीद के लाते थे। उन फूलों को बाकयदा साफ किया जाता था। फिर पानी में उबाला जाता था। हम लोग बड़े उत्साह में होते थे। वहीं दूसरी तरफ दादा जी को होली से संबंधित हो-हल्ला और हुड़दंग बिल्कुल पसंद नहीं था। वो कहते थे कि जिसको जो बदमाशी करनी है करे मैं अपनी लाइब्रेरी में पढ़ता रहूंगा।
तो होली आपका पसंदीदा त्योहार है, होली के दिन रंगों से खेलने के अलावा आप और क्या-क्या मस्ती करती थीं
उनके ये कहने के बावजूद हम सब लोग इसी ताक में रहते थे कि वो कब बाहर निकलें और उन पर रंग डाला जाए। बड़ी बड़ी पिचकारियां ‘टेस्ट’ की जाती थीं। होली के दिन दादा जी एक बार सभी से मिलने छत पर आते थे। उसके बाद उन्हें किसी बहाने बाहर बुलाया जाता था और जो पिचकारियां हफ्तों से ‘टेस्ट’ की हुई होती थीं कि कितनी दूर तक उसकी धार जाएगी, उनसे हम नीचे से उनके ऊपर टेसू के रंग डाला करते थे। दादा जी पर रंग डालकर हम बड़े खुश होते थे कि वाह क्या उपलब्धि हासिल हो गई है। जैसा पता नहीं कौन सा राज्य जीत लिया हो। होली पर ये सभी हुडदंग चलती थी। साथ में गाना बजाना भी चलता था। होली में ढपली गाई जाती है। किसी का नाम किसी के साथ मिलाकर। कई बार तो ऐसा लगता है कि अब भी कानों में सब कुछ सुनाई दे रहा है। सबका हो हल्ला। हमारी नानी भी साथ में थी। घर पर एक से बढ़कर एक पकवान बनते थे। होली जमकर खेली जाती थी और फिर उनके हाथ की बनाई गुझिया, सेव, नमकीन, मीठा सबकुछ खाने को मिलता था। शाम को तैयार होकर अपने जानने वालों के यहां मिलने जाते थे। ये सब चीजें अब मिस करते हैं। इलाहाबाद की ऐसी कई सुखद यादें हैं लेकिन दूसरे शहरों में रहते हुए अब कभी कभी लगता है कि वो सारी चीजें हम भूल गए हैं।
आप बचपन में शरारती भी थीं और जिद्दी भी हुआ करती थीं, तो आपको उस समय का ऐसा कोई किस्सा याद है
बचपन में अपनी शरारत का एक और किस्सा याद आ रहा है। मेरी एक बहन है रागिनी। वो मुझसे तीन साल छोटी है। बचपन में पता नहीं किस बात पर बीच-बीच में हम लोगों में ठन जाती थी और हम लोग मार पिटाई पर उतर आते थे। मां को इस बात पर बहुत गुस्सा आता था। मां कहती थीं- “दो ही हो तुम लोग, जब हम लोग यहां साथ में हैं तब तक ठीक है, जब हम नहीं होंगे तो तुम ही लोग साथ में होगे। तुम्हारी एक ही बहन है, प्लीज उसे प्यार से रख लो”। बावजूद इसके मेरी दादागीरी चलती थी। खूब बदमाशी करती थी। आपस में खूब लड़ते थे। एक दिन मां घर आईं तो हम दोनों लड़ रहे थे। उन्होंने गुस्से में कहाकि हम तुम्हें घर से निकाल रहे हैं। उन्होंने हमें घर के बागीचे में निकाल दिया। थोड़ी देर बाद वहां चिलचिलाती धूप आ गई। मेरी बहन ने कहा- “बड़ी प्यास लग रही है चलो मां से माफी मांग लेते हैं”। मैंने कहा- “नहीं बिल्कुल नहीं सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने हमें घर से निकाला अब हम वापस नहीं जाएंगे”। मैंने अपना ढीठपना दिखाया। रागिनी बिचारी बीच बीच में रोए भी जा रही थी। जो लोग घर के आस पास से निकल रहे थे वो पूछ भी रहे थे कि – अरे इतनी धूप में तुम लोग बाहर क्या कर रहे हो। मैं कह दे रही थी कि हम लोग खेल रहे हैं। हमारा धूप में खेलने का मन कर रहा है। मैंने जिद पकड़ ली तो फिर अंदर जाकर मां से माफी नहीं मांगी। थोड़ी देर बाद जब पिताजी आए और उनके लिए दरवाजा खुला तो रागिनी तो जल्दी से अंदर घुस गई लेकिन मैं फिल्मी गाने गाते बाहर ही खड़ी रही। मैं ऐसा दिखा रही थी जैसे मुझे कोई फर्क ही नहीं पड़ा। थोड़ी देर बाद पिता जी बाहर आए और बोले- चलो अंदर आ जाओ। उस पर भी मैंने यही कहाकि- नहीं मुझे कोई तकलीफ नहीं है हम बाहर ही रहेंगे। रूठना-मनाना चला। जिसके बाद मैं घर के अंदर गई। हालांकि बाद में मैंने बहन को ही नहीं बल्कि मां-पिताजी को भी ‘सॉरी’ कहा।
आप सिर्फ घर में ही शरारतें करती थी या फिर स्कूल में भी आपकी दादागिरी चला करती थी?
मैं सेंट मेरीज कॉन्वेंट स्कूल में जाती थी। वो इलाहाबाद का काफी जाना माना स्कूल है। इलाहाबाद के जाने माने परिवारों के बच्चे साथ में पढ़ते थे। उनमें से कई मेरे दोस्त भी थे। हमारा लंच टाइम बहुत मजेदार होता था। सभी के घर से अलगअलग लंच आता था। हम इस ताक में रहते थे कि किसके लंच में क्या आया है। मुझे याद है कि एक लड़की थी जो अपने लंच-बॉक्स में से किसी को कुछ नहीं खिलाती थी। हम सब लोग मिलकर उसको तंग करते थे कि दिखाओ ना कि आज तुम्हारे लंच बॉक्स में क्या है? थोड़ा सा स्वाद तो चखाओ। एक दिन वो बेचारी दो गुलाब जामुन लेकर आई थी। हम लोगों ने आदतन पूछा कि क्या लेकर आई हो? उसने कहाकि आज तो मैं गुलाब जामुन लेकर आई हूं। हम लोगों ने कहाकि- तुम्हारे पास दो गुलाब जामुन हैं एक हम लोगों को दे दो, उसने हमेशा की तरह मना कर दिया। हम लोगों ने कहा- अच्छा दिखाना तो जरा, जैसे ही उसने टिफिन खोला हम लोग दोनों तरफ से उसके टिफिन पर झपटे और छीनकर भाग गए। छीनने वालों में एक मैं भी थी। उसको बहुत बुरा लगा। वो लड़की हमारी जान-पहचान वालों के घर की ही थी। उसने घर जाकर बताया कि ये दोनों मेरा गुलाब जामुन छीनकर खा गए। उस दिन घर पर बहुत डांट पड़ी कि अब तुम दूसरो के लंच बॉक्स भी छीनकर खा जाओगी।