जरा सोच कर देखिए कि पांच साल की उम्र में जब बच्चों के खेलने कूदने और शैतानियों के दिन होते हैं, मृणालिनी साराभाई ने ना सिर्फ तय कर लिया था बल्कि अपनी मां के सामने ये ऐलान भी कर दिया था कि वो डांसर हैं। मृणालिनी साराभाई ने कहा था-
मुझे नहीं पता मैं कहां से अस्तित्व में आई? मुझमें समझदारी कहां से आई, किसने मेरा रास्ता तैयार किया? हर दिन एक नया दिन, किसी भी घंटे का कुछ पता नहीं। यही अज्ञात क्षण निश्चित दिनों में बदल जाते हैं। मैंने बाद में महसूस किया कि मैं क्या थी। और पांच साल की उम्र में मेरी मां बताती हैं, मैंने कहा था-मैं एक डांसर हूं। आने वाले समय में नहीं, बीते समय में भी नहीं मैं अभी इस वक्त एक डांसर हूं।
दरअसल, यही मशहूर नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई के जीवन का सच भी है। जो उनकी ऑटोबायोग्राफी ‘द वायस ऑफ हार्ट’ की शुरूआत में ही लिखा मिल जाएगा। अपनी इसी सोच के दम पर उन्होंने पूरी दुनिया में पहचान बनाई और जब दुनिया को अलविदा कहा तो उनके पास गिनाने के लिए पचास सौ नहीं बल्कि करीब बीस हजार नाम थे जिन्हें उन्होंने नृत्य की बारीकियां सीखाई थीं।
मृणालिनी साराभाई का जन्म 11 मई 1918 को केरल में हुआ था। पिता डॉ. स्वामीनाथन मद्रास हाईकोर्ट में बैरिस्टर थे। मां अम्मू स्वामीनाथन स्वतंत्रता सेनानी थीं। जो बाद में देश की पहली संसद की सदस्य भी थीं। बहन लक्ष्मी सहगल सुभाष चंद्र बोस के साथ थीं। मृणालिनी का बचपन स्विटजरलैंड में बीता। वहां उन्होंने ‘डैलक्रोज’ सीखा।
पीटीसी- ये संगीत की समझ को पैदा करने का जरिया था। वहां से लौटने के बाद मृणालिनी साराभाई ने शांति निकेतन का रूख किया। रवींद्रनाथ टैगोर से वो इतनी प्रभावित थीं कि सिर्फ उन्हें ही अपना असली गुरू मानती थीं। ये वो दौर था जब कलाकार सिर्फ एक ‘फॉर्म’ नहीं सीखते थे। मृणालिनी साराभाई ने भी नृत्य की अलग अलग शैलियों की बारीकियां सीखीं।
उन्होंने अमूबी सिंह से मणिपुरी सीखा। कुंजु कुरूप से कथकली सीखा। मीनाक्षी सुदंरम पिल्लै और मुथुकुमार पिल्लै से भरतनाट्यम सीखा। उनके हर एक गुरू का अपनी अपनी कला में जबरदस्त योगदान था। इसी दौरान उन्होंने विश्वविख्यात सितार वादक पंडित रविशंकर के भाई पंडित उदय शंकर के साथ भी काम किया। पंडित उदय शंकर का भारतीय कला को पूरी दुनिया में अलग पहचान दिलाने का श्रेय जाता है। इस बीच मृणालिनी साराभाई कुछ दिनों के लिए अमेरिका भी गईं और वहां जाकर ड्रामाटिक आर्ट्स की बारीकियां सीखीं। इसके बाद मृणालिनी साराभाई ने देश दुनिया में भारतीय नृत्य परंपरा का विकास किया।
24 बरस की थीं मृणालिनी साराभाई जब उन्होंने विक्रम साराभाई को अपना जीवनसाथी चुना। इसके पीछे का किस्सा दिलचस्प है। बैंगलोर में मृणालिनी साराभाई का रंगप्रवेश हुआ था। रंगप्रवेश यानी मंच पर पहली बार विधिवत नृत्य। किसी भी कलाकार के जीवन में उस शहर का खास महत्व होता है जहां उसका रंगप्रवेश हुआ हो। इसी शहर में कुछ दिनों बाद उनकी मुलाकात विक्रम साराभाई से हुई। विक्रम साराभाई जाने माने वैज्ञानिक रहे। उन्हें ‘फादर ऑफ इंडिया स्पेस प्रोग्राम’ कहा जाता है। विज्ञान में डांस या डांस में विज्ञान कहां से आया नहीं मालूम लेकिन दोनों ने जिंदगी साथ बीताने का फैसला किया।
ये फैसला आसान नहीं था क्योंकि शादी के बाद मृणालिनी साराभाई को अहमदाबाद ‘शिफ्ट’ होना था। दोनों शहरों के ‘कल्चर’ में जमीन आसमान का फर्क था लेकिन मृणालिनी अहमदाबाद गईं। नए रंग ढंग में खुद को ढालने में इतना ही वक्त लगा कि 6 साल के भीतर भीतर उन्होंने वहां ‘दर्पण’ नाम की संस्था की शुरूआत की। कहने को ‘कल्चर’ अलग था। भाषा अलग थी। लेकिन मृणालिनी साराभाई की संस्था में तमाम गुजराती लोगों ने नृत्य सीखा। इस दौरान डांस के साथ साथ वो कोरियोग्राफी करती रहीं। कविताएं लिखीं। कहानियां लिखीं। उन्होंने बच्चों के लिए भी लिखा। मृणालिनी साराभाई की बेटी मल्लिका साराभाई भी थिएटर और डांस से ही जुड़ीं।
मृणालिनी साराभाई की संस्था दर्पण से जुड़ा एक किस्सा बहुत कम लोगों को ही पता होगा। ये उस समय की बात है जब दर्पण में अच्छे खासे लोग डांस सीखने आते थे। डांस सीखने के बाद जब पहली बार उन्हें विधिवत नृत्य करना होता था तो उसे आरंगेत्रम कहा जाता है। आरंगेत्रम में होने ये लगा था कि जिस स्टूडेंट के माता पिता पैसे रूपये से सम्पन्न होते थे वो उसे बड़े जलसे की तरह मनाते थे। ऐसे में उन स्टूडेंट्स पर एक किस्म का दबाव होता था जो आर्थिक तौर पर ज्यादा सम्पन्न नहीं थे। इस बात की जानकारी जब मृणालिनी साराभाई को हुई तो उन्होंने आरंगेत्रम का नाम बदलकर उसे अराधाना कर दिया। इसके बाद साड़ियां संस्थान की तरफ से ही दी जाती थीं। एक साथ कार्ड छप जाया करते थे। फिजूलखर्ची पर रोक लगा दी गई।
मृणालिनी साराभाई ने अराधना को समर्पण और आस्था से जोड़ दिया। 1992 में भारत सरकार ने मृणालिनी साराभाई को पद्मभूषण से सम्मानित किया। मृणालिनी साराभाई खुद को तकनीकों से दूर रखती थीं। उन्हें आधुनिकता के शोर में गुम होना पसंद नहीं था। वो कहती थीं कि उनके लिए डांस लेखक जोसेफ कैंपबेल की उस भावना से जुड़ा हुआ है जिसमें वो कहा करते थे कि उन्हें अपने आस पास नाटकीय अलंकरणों की जरूरत नहीं है। तकनीकों के जाल को मृणालिनी साराभाई एक तरह की कब्रगाह कहा करती थीं।
वो 2016 की जनवरी का महीना था। उनकी तबियत बिगडी। अस्पताल ले जाया गया लेकिन तब तक मृणालिनी किसी और दुनिया के सफर पर जाने का फैसला कर चुकी थीं। अस्पताल में भर्ती कराए जाने के अगले ही दिन यानी 21 जनवरी 2016 को वो चली गईं। अपने जीवन को भरपूर जीने और नृत्य की दुनिया को बहुत कुछ देकर जब वो गईं तो उनके सिरहाने उनकी बेटी मल्लिका साराभाई थीं। चारों तरफ उनके ढेर सारे शिष्य थे। हर किसी का मन भारी था, लेकिन अपनी गुरू को श्रद्धांजलि देने के लिए हर कोई वहां नृत्य कर रहा था। इससे भावपूर्ण श्रद्धांजलि एक कलाकार के लिए और क्या होगी।