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उर्दू शायरी में फैज अहमद फैज का मुकाम बहुत बड़ा है। 1943 में उनकी पहली किताब आई थी- ‘नक्श-ए-फरयादी’। इस किताब में एक ग़ज़ल थी-मुझ से पहली-सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग। एक नए राग की कहानी पर जाने से पहले इस गजल के शेरों को पढ़ते हैं।

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये

यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये

और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

इस ग़ज़ल को गुजरे ज़माने की मशहूर कलाकार नूरजहां ने गाया भी था। उसके बाद इस कलाम की लोकप्रियता और भी बढ़ गई।

असली कहानी यहीं से शुरू होती है। इस ग़ज़ल के लिखे जाने के करीब 26 साल बाद हिंदुस्तानी डायरेक्टर राज खोसला एक फिल्म बना रहे थे। फिल्म का नाम था- चिराग। फिल्म का संगीत तैयार हो ही रहा था कि एक रोज राज खोसला कहीं से ये ग़ज़ल सुन आए। ये ग़ज़ल उनकी जुबान पर चढ़ गई। अब ग़ज़ल के दिमाग पर चढ़ने का किस्सा भी दिलचस्प है फिल्म की यूनिट वाले ऐसा कहते थे कि दरअसल इस ग़ज़ल की एक लाइन पर राज खोसला का दिल अटक गया था। वो लाइन थी- तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है। कहते हैं इन लाइनों ने राज खोसला के पुराने प्यार को उन्हें याद दिला दिया था। खैर, फिल्म चिराग का संगीत मदन मोहन तैयार कर रहे थे। गीत लिखने की जिम्मेदारी मजरूह सुल्तानपुरी जैसे बड़े शायर पर थी। राज खोसला ने एक रोज कहा कि उन्हें भी अपनी फिल्म में एक ऐसा गाना चाहिए जिसके बोल हों तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है। मुसीबत ये हुई कि मजरूह सुल्तानपुरी साहब इस बात के लिए राजी ही नहीं थे कि वो किसी और शायर की लिखी लाइनों को अपने कलाम का हिस्सा बनाएंगे। मजरूह साहब उम्र में फैज अहमद फैज से भले ही छोटे थे लेकिन अदबी दुनिया में उनका नाम भी बहुत बड़ा था। उन्होंने डायरेक्टर राज खोसला को इस लाइन के इर्द-गिर्द कई दूसरी लाइनें लिखकर दीं लेकिन राज खोसला के दिलो दिमाग पर तो फैज साहब की लाइनें चढ़ चुकी थीं। लिहाजा उन्हें कुछ पसंद ही नहीं आ रहा था। आखिर में डायरेक्टर की जिद को देखते हुए मजरूह सुल्तानपुरी ने फैज अहमद फैज से उस लाइक को इस्तेमाल करने की इजाजत ली और एक नया नगमा लिखा। जिसके बोल थे,

तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है,

ये उठे सुबह चले, ये झुकें शाम ढले

मेरा मरना, मेरा जीना, इन्हीं पलकों के तले।

मोहम्मद रफी साहब की आवाज और सुनील दत्त और आशा पारिख पर फिल्माया गया ये गाना जबरदस्त हिट हुआ। दरअसल इस गाने को राग झिंझोटी पर कंपोज किया गया था। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इस गाने में मजरूह सुल्तानपुरी के शब्दों का जादू तो था ही संगीत ने गाने में और चार चांद लगा दिए। ‘झिंझोटी’ राग का जादू भी कुछ ऐसा ही था पचास-साठ-सत्तर के दशक में संगीतकारों ने इस राग को अपनी ‘कंपोजिशन’ में जमकर इस्तेमाल किया। राग झिंझोटी की मिठास में लोकगीतों का रंग छिपा हुआ है। उत्तर प्रदेश के में गाए जाने वाले लोकगीतों जो असर होता है वो असर आपको राग झिंझोटी में ख्याल गायकी सुनते हुए भी महसूस होगा। जरा याद कीजिए तीसरी कसम में राज कपूर पर फिल्माया और मुकेश का गाया  वो गीत- सजनवा बैरी हो गए हमार। ये गीत भी राग झिंझोटी पर आधारित है।

पचास-साठ-सत्तर के उस दौर के कुछ और बेहद शानदार गाने आपको याद दिलाते हैं जिसमें राग झिंझोटी का इस्तेमाल किया गया है। इसमें 1959 में आई फिल्म ‘छोटी बहन’ का गाना ‘जाऊं कहां बता ऐ दिल’, 1961 में फिल्म ‘झुमरू’ का गाना ‘कोई हमदम ना रहा, कोई सहारा ना रहा’, 1963 में आई फिल्म ‘मेरे महबूब’ का गाना ‘मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम’, 1970 में ‘पागल कहीं का’ का गाना ‘तुम मुझे यू भूला ना पाओगे’ और 1974 में आई फिल्म ‘चोर मचाए शोर’ का गाना ‘घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं’ प्रमुख है। राग झिंझोटी का एक और किस्सा बड़ा दिलचस्प है। जो फिल्म इंडस्ट्री दो बहुत बड़े कलाकारों के झगड़े से जुड़ा हुआ है। फिल्म इंडस्ट्री में एसडी बर्मन और लता मंगेशकर का झगड़ा बहुत मशहूर है। काफी समय तक खींचे झगड़े के बाद जब दोनों ने दोबारा एक साथ काम करना शुरू किया तो सबसे कामयाब फिल्मों में ‘गाइड’ आई। उस फिल्म में ‘मोसे छल किए जाए हाय रे हाय सैयां बेइमान’ गाना भी बर्मन दादा ने राग झिंझोटी पर कंपोज किया था।

आइए अब आपको हमेशा की तरह राग के शास्त्रीय पक्ष के बारे में बताते हैं। राग झिंझोटी को चंचल प्रवृति का राग माना गया है। ये बात आपने इस राग में कंपोज किए गए गानों को सुनने के बाद महसूस भी की होगी। इस राग में फिल्मी गीतों के अलावा ठुमरी और भजन गाए जाते हैं। इस राग के विस्तार के लिए मंद्र और मध्य सप्तक को उपयुक्त माना जाता है। रात के दूसरे पहर के इस राग में ‘ग’ वादी और ‘नी’ वादी-संवादी स्वर हैं। खमाज थाट के इस राग के आरोह में ‘नी’ वर्जित है लेकिन अवरोह में कोमल ‘नी’ लगता है। इसके अलावा सभी स्वर कोमल लगते हैं।

आरोह- स रे म प ध स

अवरोह- स नी ध प म ग रे स

इस राग में कंपोज की गई एक भक्ति रचना ऐसी है जो शायद ही किसी ने ना सुनी हो। भारत रत्न लता मंगेशकर की आवाज में इस रचना याद करने भर से एक ऊर्जा मिलती है। ये रचना थी- ठुमक चलत रामचंद्र। चंचल प्रवृति का राग होने के कारण गायकी के साथ साथ इस राग को बजाने में भी कलाकारों को बहुत आनंद आता है। यही वजह है कि शास्त्रीय कलाकारों ने भी राग झिंझोटी को खूब गाया बजाया है।

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