राग खमाज खुशी और श्रृंगार का राग है। इसका व्याकरण देखें तो इस राग की उत्पत्ति खमाज थाट से ही मानी गई है, यानी ये अपने थाट का आश्रय राग है। राग खमाज में आरोह में रे नहीं लगता, अवरोह में सातों स्वर लगते हैं, इसलिए जाति है षाडव-संपूर्ण। आरोह में निषाद शुद्ध लगता है जबकि अवरोह में कोमल निषाद लेकर आते हैं। बाकी सारे स्वर शुद्ध हैं। इस राग का वादी स्वर गंधार और संवादी निषाद माना गया है। गाने-बजाने का समय है रात का दूसरा पहर। जैसा कि रागों की इस सीरीज में हम पहले भी बता चुके हैं कि आरोह अवरोह सुरों की एक सीढ़ी जैसा है। सुरों के ऊपर जाने को आरोह और नीचे आने को अवरोह कहते हैं। इसी तरह हम ये बता चुके हैं कि किसी भी राग में वादी और संवादी सुर अहमियत के लिहाज से बादशाह और वजीर जैसे हैं।
आरोह– सा ग, म प, ध नि सां
अवरोह– सां नि ध प, म ग, रे सा
पकड़– नि ध, म प ध S म ग, प म ग रे सा
शास्त्रीय कलाकारों ने भी इस राग को खूब गाया बजाया है। पंडित अजय चक्रवर्ती ने तो बाकयदा पटियाला घराने की बेगम परवीन सुल्ताना के साथ इस राग में फिल्म ‘गदर’ में ठुमरी भी गाई है। जिसे संगीतकार उत्तम सिंह ने कंपोज किया था। ‘आन मिलो सजना, अंखियों में ना आए निंदिया’। दरअसल, खमाज चंचल प्रकृति का राग है। इसमें छोटा खयाल, ठुमरी और टप्पा गाते हैं, विलंबित ख्याल गाने का प्रचार नहीं है। खास तौर पर राधा और कृष्ण के प्रेम वाली ठुमरी इस राग में खूब गाई जाती है। ठुमरी गाते हुए आरोह में भी कभी कभी ऋषभ लगाते हैं। सुंदरता बढ़ाने के लिए दूसरे रागों की छाया भी दिखाते हैं, हालांकि ऐसा करने पर इस राग को फिर मिश्र खमाज कहा जाता है।