Skip to main content

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के शुरुआती सुपरस्टार थे केएल सहगल। ये केएल सहगल की काबिलियत और उनकी शख्सियत ऐसी थी कि उस दौर में हर कोई उनका मुरीद था। नौशाद साहब से लेकर लता मंगेशकर तक। लता मंगेशकर तो अपनी बचत के पैसों को जोड़-जोड़ कर खरीदा रेडियो इसलिए वापस कर आई थीं क्योंकि उस रेडियो पर उन्हें सबसे पहले सहगल साहब की मौत की खबर मिली थी। केएल सहगल मुकेश को बहुत प्यार करते थे। यही वजह थी कि मुकेश ने जब हिंदी फिल्मों में गाना शुरू किया तो वो केएल सहगल की नकल किया करते थे। 1945 में रिलीज फिल्म पहली नजर से मुकेश अपने प्लेबैक गायकी का करियर शुरू किया था। उस फिल्म में संगीत अनिल बिस्वास का था। अनिल बिस्वास ने गीतकार आह सीतापुरी के लिखे गीत ‘दिल जलता है तो जलने दे’ के लिए मुकेश को मौका दिया। मुकेश का गाया वो गीत आप भी सुनिए, ये फर्क करना मुश्किल है कि गाना मुकेश ने गाया है या केएल सहगल ने। इस गीत को संगीतकार अनिल बिस्वास ने बेहद लोकप्रिय शास्त्रीय राग दरबारी कान्हड़ा पर बनाया था जिसे दरबारी भी कहते हैं। इस गाने के अलावा भी मुकेश के शुरुआती करियर का बड़ा समय केएल सहगल की गायकी की छांव में ही बीता। मुकेश दर्द भरे नगमों के लिए संगीतकारों की पसंद बनते जा रहे थे। केएल सहगल की भी पहचान ऐसी ही थी। ऐसे में मुकेश भी चाहे अनचाहे खुद को सहगल की स्टाइलसे बाहर नहीं निकाल पा रहे थे। मुकेश को तोहफे में दिया गया सहगल साहब का हारमोनियम एक तरह से उन्हें अपना उत्तराधिकारी बताना भी था। 1951 में रिलीज हुई बेहद लोकप्रिय फिल्म- आवारा का गीत ‘हम तुझसे मोहब्बत करके सनम, हसंते भी रहे रोते भी रहे’ सुनिए। ये गीत राज कपूर पर फिल्माया गया था। संगीतकार शंकर जयकिशन थे, राग दरबारी कान्हड़ा ही था। और मुकेश की गायकी का अंदाज भी सहगल साहब की तरह ही था।

दरअसल, दरबारी कांहड़ा एक ऐसा राग है जिसे संगीतकारों ने जमकर इस्तेमाल किया है। हिंदी फिल्मों में दर्जनों गाने होंगे जो इसी राग को आधार बनाकर कंपोज किए गए। 1960 में रिलीज ऐतिहासिक फिल्म मुगल-ए-आजम का सुपरहिट गाना मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोए भी इसी राग पर आधारित था। जिसका संगीत नौशाद ने तैयार किया था। 1964 में रिलीज हुई फिल्म- आप की परछाइयां में संगीतकार मदन मोहन का संगीतबद्ध गाना अगर मुझसे मोहब्बत है मुझे सब अपने गम दे दो, अगले साल यानी 1965 में रिलीज फिल्म-एक सपेरा एक लुटेरा का हम तुमसे जुदा होके मर जाएंगे रो-रोके, कल्याण जी आनंद जी के संगीत निर्देशन में 1969 में रिलीज फिल्म-विश्वास का गाना चांदी की दीवार ना तोड़ी, 1982 में रिलीज फिल्म-नमक हलाल का गाना पग घुंघरू बांध मीरा नाची थी भी इसी राग पर आधारित था। 1991 में नदीम श्रवण के संगीत निर्देशन में रिलीज फिल्म-साजन का देखा है पहली बार साजन की आंखों में प्यार भी राग दरबारी कांहडा पर आधारित था।  गुलाम अली की जानी मानी गजल हंगामा क्यों है बरपा भी इसी राग में कंपोज की गई है। इससे आप इस राग की रेंज समझ सकते हैं।

दरबारी कान्हड़ा को लेकर एक और मशहूर किस्सा है। नौशाद साहब ने एक बार अखबार में खबर पढ़ी। ये जिक्र उन्होंने खुद ही अपने एक इंटरव्यू में किया था। हुआ यूं कि एक शहर में किसी को फांसी को हुकुम हुआ। फांसी के रोज उस मुलजिम से पूछा गया कि तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है, कुछ खाओगे? कुछ पिओगे? किसी से मिलोगे?” मुलजिम ने कहा- नहीं। जेल के अधिकारियों ने दोबारा पूछा-कोई आखिरी तमन्ना। उसने कहा- हां एक तमन्ना है”, अधिकारियों ने पूछा- क्या ? मुलजिम ने कहा- मुझे फांसी से पहले वो गीत सुना दिया जाए- ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले, जीवन अपना वापस ले ले जीवन देने वाले। फांसीघर में ऐसा ही किया गया। टेप रिकॉर्डर मंगाया गया और फांसी पर लटकाने से पहले उसे वो गाना सुनाया गया। ये गाना भी राग दरबारी कान्हड़ा में था। नौशाद साहब ने बताया था कि उस गाने के लिए रफी साहब ने पंद्रह बीस दिन रिहर्सल किया था। नौशाद साहब ने सोचा था कि उनकी आवाज की जो ‘रेंज’ है यानि बुलंदी है उसका कितना इस्तेमाल किया जा सकता है। ये बात भी सही है कि इस गाने की रिकॉर्डिंग के बाद रफी साहब काफी दिनों तक गाना नहीं गा सके क्योंकि उनकी आवाज बैठ गई थी। कुछ लोगों ने तो ये भी कहा था कि इस गाने के दौरान रफी साहब के गले से खून आ गया था। हालांकि रफी साहब ने नौशाद साहब से कभी इस बात का जिक्र नहीं किया। गौर करने वाली बात ये भी थी कि ये गाना नौशाद साहब ने काफी अरसे के बाद दोबारा रिकॉर्ड किया था और पिछली बार के मुकाबले रफी साहब ने इस बार दो सुर और ऊपर लगाए थे।

इस राग के शास्त्रीय पक्ष पर बात करने से पहले एक ऐसा किस्सा जो आपको इस राग के महत्व के बारे में बताएगा। जाने माने सरोद वादक और बेहद लोकप्रिय कलाकार उस्ताद अमजद अली खान के पिता उस्ताद हाफिज अली खान बहुत ही सादी तबियत के सच्चे संगीतकार थे। अमजद अली खान बताते हैं कि हाफिज अली खान को पद्म भूषण दिया गया तो उन्हें देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से मिलने का मौका मिला। राजेंद्र बाबू ने पूछा- खान साहब आप ठीक तो हैं ना, बताइये हम आपके लिए क्या कर सकते है?’ हाफ़िज अली खान ने कहा- राग दरबारी की शुद्धता खतरे में है, तानसेन का बनाया राग है, आजकल लोग उसकी शुद्धता पर ध्यान नहीं दे रहे, इसके लिए कुछ कीजिए.’  राजेंद्र बाबू उनके भोलेपन पर मुस्कुरा कर रह गए।

आइए अब आपको राग दरबारी कांहडा के शास्त्रीय पक्ष के बारे में बताते हैं। इस राग की रचना आसावरी थाट से मानी गई है। राग दरबारी कांहडा में ‘ग’ ‘ध’ और ‘नी’ हमेशा कोमल लगते हैं। इस राग की जाति वक्र संपूर्ण होती है। इस राग को गाने बजाने का समय मध्य रात्रि है। राग दरबारी कांहडा में वादी स्वर ‘रे’ और संवादी स्वर ‘प’ है। ऐसा माना जाता है कि कर्नाट राग का नाम ही बाद में बनते बिगड़ते कान्हड़ा हो गया। इस राग के बारे में एक किस्सा ये भी मशहूर है एक बार तानसेन ने ये राग सम्राट अकबर को सुनाया। अकबर को ये राग बहुत पसंद आया। उन्होंने इसे तानसेन से कई बार सुना। तब तक इस राग को कर्नाट राग ही कहा जाता था लेकिन उस रोज से इसका नाम राग दरबारी कान्हड़ा पड़ गया। कांहडा के 18 प्रकार शास्त्रीय संगीत में गाए बजाए जाते हैं, जिन सभी का आधार राग दरबारी कान्हड़ा ही है। आइए अब आपको इस राग का आरोह अवरोह बताते हैं।

 

आरोह- सा, रे (म) ग S म रे सा, म प, (नी) ध (नी) सां

अवरोह- सां ध S नी प, म प (म) ग म रे सा

राग दरबारी कांहडा शास्त्रीय कलाकारों का पसंदीदा राग रहा है। ग्वालियर घराने के बेहद सम्मानीय कलाकार पंडित डीवी पलुस्कर का गाया राग  दरबारी कान्हड़ा  बहुत सुना जाता है। इंटरनेट पर सरोद के विख्यात कलाकार उस्ताद अली अकबर खां का बजाया राग  दरबारी कान्हड़ा  भी खासा लोकप्रिय है। मरहूम कव्वाल उस्ताद नुसरत फतेह अली खान ने राग दरबारी कान्हड़ा में पीटर गैब्रियल के साथ जुगलबंदी भी की है।  लगे हाथ एक और बात का जिक्र कर दें कि राग दरबारी नाम से हिंदी के मशहूर साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल का एक उपन्यास भी है जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादेमी सम्मान से नवाजा गया था।

Leave a Reply