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‘सुर महाराज है’

‘ख़ुदा भी एक है और सुर भी एक है’

‘सुर किसी की बपौती नहीं, ये ‘कर-तब’ है, यानी करोगे तब मिलेगा’

‘पैसा खर्च करोगे तो खत्म हो जायेगा पर सुर को खर्च करके देखिये महाराज…कभी खत्म नहीं होगा’

‘अमां हम इधर उधर की बात नहीं जानते, बस सुर की बात करते हैं’

सचमुच, वो सिर्फ सुर की बात करते थे. बात कहीं से भी शुरू कीजिए, मज़हब से, सियासत से, मुल्क के हालात से, वो घुमा फिरा कर बात को सुर पर ले आते थे और फिर चमकती आंखों के साथ अचानक कुछ गुनगुनाने लगते, कोई मीठी सी बनारसी धुन…ते नैss ना..ना..नैss….उस वक्त लगता था जैसे शहनाई उनके गले से बोल रही है. हर सवाल का जवाब- सुर.  हर दलील की काट- सुर. एक बार किसी मौलाना ने समझाने की कोशिश की कि इस्लाम में मौसीकी हराम है तो राग भैरव में ‘अल्लाह ही अल्लाह, ज़िल्लेशान अल्लाह’ गाकर पूछ लिया- क्या ये हराम है ? मौलाना खामोश हो गए. ऐसे ही सुरों के औलिया थे शहनाई नवाज़ उस्ताद बिस्मिल्लाह खान. सुर ही खाना, सुर ही पहनना, सुर ही ताना, सुर ही बाना.

शादी ब्याह वाले घर में टेंट लगानेवालों, फूल सजाने वालों, खाने का इंतजाम करने वालों से ज्यादा अहमियत नहीं होती थी उन लोगों की जो कहीं किसी कोने में छोटे से मंच पर बैठकर शहनाई पर मंगल धुन बजाते थे. वो भी मालकौंस और मारू बिहाग जैसे पक्के राग ही बजाते थे मगर राजा रजवाड़ों के जमाने में कहते हैं कि उन्हें तीसरी मंज़िल पर बैठने की जगह दी जाती थी. लेकिन बिस्मिल्लाह के हाथों में पहुंची शहनाई तो उसकी आवाज़ में वो कशिश, वो पाकीज़गी और वो तासीर पैदा हुई कि उसका रुतबा, उसकी पूछ, उसकी कद्र बढ़ती चली गई. खुशी के माहौल में बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह बजने वाली शहनाई बड़े-बड़े कॉन्सर्ट्स के मंच पर, तालियों और दाद के केंद्र में आ गई. इसीलिए तो शहनाई और बिस्मिल्लाह खान हमेशा हमेशा के लिए एक दूसरे के पर्याय बन गए.

21 मार्च 1916 को बिहार के डुमराव में पैदा हुए थे बिस्मिल्लाह खान. मां-बाप ने नाम रखा था कमरुद्दीन, लेकिन कहते हैं कि दादा ने अपने पोते को देखा तो मुंह से निकला- बिस्मिल्लाह. बस फिर यही नाम पड़ गया. संगीतकारों का परिवार था. पुरखों में गवैये भी थे, शहनाई वादक भी. पिता पैगंबर बक्श डुमराव के राजदरबार में मुलाज़िम थे. बिल्मिल्लाह को शहनाई की आवाज़ बचपन से ही लुभाती थी. करीब 6 साल के हुए तो मामू अली बक्श अपने साथ बनारस ले आए. मामू खुद शहनाई बजाते थे. बनारस के बालाजी और मंगला गौरी मंदिर में अक्सर उनकी शहनाई सुनी जाती थी. बिस्मिल्लाह को पढ़ाई के लिए स्कूल भेजा गया लेकिन स्कूल में उनका मन नहीं लगा. मन तो सुरों में रम चुका था. मामू की शहनाई सुन सुनकर बिस्मिल्लाह दीवाने हो चुके थे. मामू ने बालक बिस्मिल्लाह के हाथ में 6 इंच लंबी शहनाई लाकर थमा दी जिसे नफीरी कहा जाता था. बिस्मिल्लाह ने अपने होठों से लगाया, सोचा फूंकते ही मीठे स्वर निकलने लगेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बल्कि जो अजीब सी आवाज निकली उसे सुनकर आस-पास के लोग हंसने लगे. बिस्मिल्लाह उदास हो गए. तब मामू अली बक्श ने प्यार से अपनी गोद में बैठाया और बताया कि शहनाई को थामते कैसे हैं, सुर कैसे निकालते हैं. यहां बिस्मिल्लाह के फॉर्मल ट्रेनिंग की शुरुआत हुई. इसके बाद मामू अली बक्श की देख रेख में बिस्मिल्लाह खान की संगीत साधना चलने लगी.

साल 1930 में इलाहाबाद में कार्यक्रम पेश करने का मौका मिला. इसके बाद बिस्मिल्लाह के शहनाई की खुशबू फैलने लगी. 1937 में करीब बीस बरस की उम्र में कोलकाता की ऑल इण्डिया म्यूज़िक कॉंफ्रेंस में शामिल हुए. इतनी सराहना मिली कि फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा. धीरे धीरे बिस्मिल्लाह खान ‘उस्ताद’ कहे जाने लगे. रागों के भी उस्ताद और बनारस के रंग वाली कजरी, चैती, सावनी, होली, ठुमरी के भी उस्ताद. खान साहब अपनी खुशमिज़ाज तबीयत के लिए जाने जाते थे. दिल में जो मिठास थी वो संगीत के जरिए लोगों तक पहुंचती थी तो फौरन असर दिखाती थी. जब भारत में मनोरंजन का इकलौता साधन ‘आकाशवाणी’  हुआ करता था तब तो अनगिनत घरों में दिन की शुरुआत खां साहब की शहनाई के सुरों से ही हुआ करती थी.

खान साहब कुछ फिल्मों से भी जुड़े. फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुन छेड़ी. और भी कई फिल्मों में बजाया. लेकिन कहते हैं फिल्म की जरूरत के हिसाब एडिटिंग के वक्त शहनाई में जो काट छांट कर दी जाती थी वो खान साहब को पसंद नहीं था, इसलिए वो फिल्मों से दूर हो गए.

1947 में आजादी की पूर्व संध्या पर जब लाल किले पर देश का झंडा फहरा रहा था तब बिस्मिल्लाह खान की शहनाई वहां आजादी का संदेश बांट रही थी. बिस्मिल्लाह खान धर्म की सीमाओं से परे थे. मंदिरों में बैठकर भी शहनाई बजाते थे और मुहर्रम के वक्त ताज़िये के आगे-आगे भी शहनाई बजाते चलते थे. शहनाई उनके लिए अल्लाह की इबादत का जरिया भी थी और सरस्वती वंदना का माध्यम भी. अपने संगीत से उन्होंने सबको शांति और प्रेम का संदेश दिया.

बिस्मिल्लाह खां को अपने देश की मिट्टी से प्यार था. खासतौर पर बनारस उनके भीतर धड़कता था. बनारस के बिना वो जिंदगी की कल्पना नहीं कर पाते थे. कहते हैं किसी बड़े रईस ने अमेरिका में बसने का ऑफर दिया तो खान साहब ने पूछा- क्या वहां गंगा मैय्या को ले जा सकते हो, गंगा को ले चलो तब चलूंगा. संगीत के क्षेत्र में उनके बेमिसाल योददान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें एक के बाद एक पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और फिर भारत रत्न से नवाज़ा.

खान साहब हमेशा अपने सादा और सूफियाना जीवन शैली के लिए जाने जाते रहे. ये और बात है कि घर परिवार की जरूरियात ने मौसीकी के उस फकीर को पैसे की कीमत का भी बार-बार अहसास दिलाया. कई बार तो उन्होंने मुंह खोलकर कहा भी कि अवॉर्ड से पेट नहीं भरता, 10 रुपया ही सही, महीने की कुछ रकम तो दिला दे सरकार. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. मुफलिसी का दर्द झेलते हुए 21 अगस्त 2006 को उस्ताद सबको छोड़कर रुखसत हो गए, लेकिन उनकी शहनाई आज भी हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया के कोने-कोने में गूंजती है.

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