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पंजाबी गानों के शहंशाह हैं लेकिन आपके संगीत की शुरुआत पंजाब से नहीं बल्कि बिहार, बंगाल से हुई ये क्या स्टोरी है

प्रभु की कृपा से हमारा आगमन बिहार में हुआ। इसके बाद मेरे परिवार का काफी समय बिहार और बंगाल में गुजरा। मैं खुद भी पटना, धनबाद, आसनसोल जैसी जगहों में खूब रहा। जैसे जैसे उम्र बढ़ी वहां होने पर मुझे ये फायदा हुआ कि उनके ‘म्यूजिक’ का भी पता चला। मेरा ‘कलेक्शन’ और बढ़ गया। ठुमरी, दादरा, कजरी सुनने को मिली। पंजाब का लोकगीत तो घर में सुनने को मिलता ही था। वहां का लोकसंगीत भी सुनने सिखने को मिला। संगीत के अलावा फिल्में देखना और छोटी मोटी शरारतें करते रहने में मजा आता था। मुझे याद है कि जैसे ही हरे चने का मौसम आता था तो हम इसी ताक में रहते थे कि हरे चने से लदी कोई ट्रॉली जा रही हो तो चने खाने को मिलें। बिना बताएं खींचकर खाने में मजा ही अलग आता था। कई बात तांगे में लदकर चने जा रहे होते थे तो मैं वहां से भी फलियां खींच लिया करता था। ऐसे ही बाजार जाते वक्त अगर गन्ने से लदी कोई ट्रॉली या ट्रैक्टर दिख गया तो कुछ गन्ने तो खींच ही लिया करते थे। ऐसे ही जब 10-11 साल का हुआ तो पटना सिटी से पटना जंक्शन तक बगैर टिकट जाने में बड़ा मजा आता था। ट्रक के पीछे लटककर 12-12 किलोमीटर चले जाया करते थे। फिर कहीं सड़क पर जा रहे हैं और संगीत बजने की आवाज आ गई तो मैं बेधड़क बिना इजाजत वहां पहुंच जाता था। वहां जाकर मैं बताता था कि मैं भी आर्टिस्ट हूं। गाते हैं। उस समय में इन्हीं बातों का मजा था।

आप बचपन में पढ़ाई लिखायी करने वाले बच्चे थे या भी खूब शरारतें करते थे

पढ़ाई लिखाई में मेरा ज्यादा मन नहीं लगता था, क्योंकि समझ कुछ नहीं आता था। बावजूद इसके मैं शुक्रगुजार हूं अपने टीचरों का कि उन्होंने मुझे बहुत प्यार दिया। मुझे याद है कि हमारे जो गणित के टीचर थे उनका एक काम था। वो क्लास में घुसते ही सभी बच्चों की पिटाई करते ही करते थे। किसी की गलती हो या ना हो डंडे तो पड़ने ही पड़ने हैं। जब मेरी बारी आती थी तो कहते थे- ये हमारा बेटा बहुत बड़ा सिंगर है दलेर सिंह। मुझे अभी तक उनकी शक्ल याद है। वो पूरी क्लास के सामने कहते थे कि तुम लोग देखना एक दिन दलेर सिंह अमेरिका जाएगा, कनाडा जाएगा शो करने के लिए। जब वो ये सब कहते थे तो मैं सिर्फ उन्हें देखता रहता था। मेरे मन में चलता रहता था कि ये पता नहीं क्या क्या कहते रहते हैं कि अमेरिका जाएगा, कनाडा जाएगा। मैं कहां जाने वाला हूं। लेकिन उनकी दुआएं काम आईँ। मैं तो खुद को दुआओं का ही आदमी मानता हूं। मैं दोस्तों को ज्यादा भाव नहीं देता था या यूं कहिए कि स्कूल में अपने ग्रुप का लीडर मैं ही होता था। मैं ही ऑर्डर देता था कि आज ऐसा करना है या आज वैसा करना है। मैं सभी को सबके रोल असाइन कर देता था। कभी कभार जब फिल्म देखने का प्लान बनता था तो मैं सबको ‘इंस्ट्रक्शन’ देता था कि जाओ जाकर घर से पैसे लेकर आओ। ‘मैसेज’ बिल्कुल क्लीयर रहता था कि चाहे फादर साहब से झापड़ भी पड़ जाए तो कोई बात नहीं लेकिन फिल्म देखने के लिए पैसे लेकर ही आना है। एक हमारा दोस्त था- जुनेजा। वो बहुत प्यारा इंसान है। उसे गाने का कुछ नहीं पता था। उसके पिताकी एक दुकान थी। वो मुझे बहुत मानता था। शाम को जब उसको ‘टाइम’ और मौका मिलता था तो वो अपने पापा की दुकान पर बैठता था। वहां बैठने का मतलब है कि वो शाम को दस-बारह रूपए वहां से मार ही लेता था। जो उस जमाने में हमारी मौज मस्ती के लिए बहुत होते थे। बस वो पैसे हाथ में आते ही हम कुछ दोस्त फिल्म देखने या कुछ खाने पीने निकल जाते थे। इन तमाम छोटी छोटी बदमाशियों के बाद भी कभी पिताजी से कोई डांट नहीं पड़ी। मुझे नहीं याद आता कि पिताजी ने कभी पिटाई की हो। हम लोग एकसाथ ढेर सारे बच्चे रहते थे। कभी कोई बदमाशी की भी तो घर पर किसी की शिकायत नहीं पहुंच पाती थी। हम गाना सुना दिया करते थे। बड़े प्यारे बच्चे थे मेरे साथ। बचपन वैसे भी ऐसी प्यारी प्यारी शरारतों से भरा रहता है। मैं जब बहुत छोटा था तो एक बार मैंने दारा सिंह साहब को बिल्कुल करीब से देखा। मैं इतना खुश हो गया कि मैंने जोर से चीखकर मां को आवाज लगाई- देखो दारा सिंह आ गए। दारा सिंह आ गए। दारा सिंह ने मुझे उस दिन बहुत प्यार किया। तब मुझे नहीं पता था कि मैं कभी दलेर मेंहदी बनूंगा। मेरी किस्मत देखिए कि मैंने बाद में दारा सिंह के साथ शो किया। वो भी उन्हें पहली बार देखने के 25-26 साल बाद। वो शो भी कमाल ही था।

हमने सुना है कि आप  बचपन में घर से संगीत सीखने के लिए भाग गए थे क्या ये सच है

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि मैं संगीत सीखने के लिए घर से भाग गया। भागा भी तो गोरखपुर। वहां पहुंचने के लिए जो पैसे चाहिए थे वो मेरी बहन ने मुझे दिए। मुझे उस्ताद राहत अली से संगीत सीखना था। वो बड़े गुलाम अली खान साहब के शिष्य थे। वो लगभग पूरा जिंदगी गोरखपुर में ही रहकर गाना बजाना करते रहे। मैं गोरखपुर पहुंच तो गया लेकिन वो मुझे जानते नहीं थे। उन तक पहुंचने के लिए बड़े पापड़ बेलने पड़े। लेकिन जब पहली बार उन्होंने मुझे सुना तो उनकी आंख में आंसू थे। उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर कहाकि देखो तुम कहती थी ना कि तुम्हारे कोई बेटा नहीं है। ये लो ऊपरवाले ने तुम्हें बेटा दे दिया। इसके बाद मैंने वहां रहकर एक साल तक संगीत सीखा। उस्ताद जी बड़े ठहराव के साथ संगीत सिखाते थे। मैं उन्हें पापा कहने लगा था। दिक्कत ये थी कि मुझे ये लगने लगा कि वो कुछ नया नहीं सीखा रहे क्योंकि कई महीनों तक मुझे वो एक ही चीज सीखा रहे थे। एक दिन मैंने वहां से वापस भागने का मन बना लिया। वहां से भागकर मैं वापस घर आया।

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