आपको बचपन में रिबेलियन कहा जाता था, इसकी क्या वजह थी और क्या आप मानते हैं कि आप रिबेलियस थे?
मेरा बचपन बाकि बच्चों से काफी अलग बीता है। बचपन में अमूनन बच्चे स्कूल जाते हैं, पढ़ाई करते हैं लेकिन मैंने ये नहीं किया। मैंने अपनी पढ़ाई खुद से की है यानि ‘सेल्फ स्टडी’। इसी ‘सेल्फ स्टडी’ के भरोसे मैं पढ़ता गया और आगे बढ़ता गया। मैंने बीए (ऑनर्स) तक की पढ़ाई बगैर स्कूल या कॉलेज गए की है। इसी वजह से मुझे बचपन में ‘रिबेलियन’ करार दिया गया था कि ये घर का पहला ऐसा बच्चा है जो स्कूल नहीं जा रहा है। दरअसल मुझे स्कूल अच्छा नहीं लगता था। मुझे लगता था कि जिन 6 घंटों तक मैं स्कूल में रहूंगा, उसमें मैं बहुत कुछ कर सकता हूं। मुझे ऐसा लगता था कि स्कूल में पढ़ाई तो एक घंटे की होती है लेकिन उसके लिए 6 घंटे तक वहीं बैठना पड़ता है। मेरी बुद्धि बहुत प्रखर थी। मुझे लगता था कि पढ़ाई का काम तो मैं खुद से ही कर लूंगा। आम तौर पर अगर सामान्य परिवारों की बात की जाए तो 99 फीसदी से ज्यादा घरों के बच्चे स्कूल जाते होंगे। मेरे अपने परिवार में भी मुझे छोड़कर बाकि सभी बच्चे स्कूल गए थे। लेकिन पता नहीं ऐसा क्यों हुआ कि मैं स्कूल नहीं गया। मुझे बस इतना याद है कि स्कूल में जब मैं पहले दिन गया था तो वहां मैं बोर हो गया था। 6 घंटे के लिए स्कूल में रहना ऐसा लगा जैसे मुझे किसी ने सजा दे दी है। मुझे अपने आप पर भरोसा भी था। मेरे पिता जी और मां ने भी जब मेरा भरोसा देखा तो मुझे घर पर ही पढ़ने की अनुमति दे दी। उन्होंने मेरे लिए घर पर ही ‘ट्यूटर’ लगा दिया। मैं घर पर ही पढ़ता रहा और हर इम्तिहान में ‘फर्स्ट डिविजन’ से ऊपर ही नंबर आते रहे। ये सिलसिला बाद में कॉलेज तक चलता रहा।
आप तैलंग से हैं तो फिर जयपुर आकर बसना ये कैसे हुआ?
वैसे भी मैं बहुत ही संजीदा बच्चा था। बचपन में मैंने कभी कोई शैतानी नहीं की। अपनी शैतानी का ऐसा कोई किस्सा मुझे याद नहीं जब मैंने किसी को सताया हो। हां, कभी कभार छोटी मोटी शैतानी की भी तो बस यही कि घर या आस पड़ोस में किसी को यूं ही कह दिया कि अरे आप यहां क्या कर रहे हैं, फलां जगह पर फलां इंसान आपका इंतजार कर रहा है। ऐसे ही एकाध बार बिना किसी बात के किसी को इधर उधर भेज दिया होगा। एक बार का किस्सा और याद आ रहा है। हम लोग छत पर थे। हम चार मंजिला हवेली में रहते थे, जो हमें राजा महाराजाओं की तरफ से दी गई थी। उस दौर में राजा महाराजओं के राज दरबार में एक गुणीजन खाना हुआ करता था। जैसे अकबर के नवरत्न थे। उसमें अलग अलग क्षेत्र के लोग हुआ करते थे। जैसे अकबर के नवरत्नों में संगीत के क्षेत्र से तानसेन थे। उसी तरह जयपुर के महाराजाओं ने जो गुणीजन खाना बनाया, उसमें वो हमारे पूवर्जों को आंध्र प्रदेश से लेकर आए थे। हम लोग तैलंग हैं। हमारे वहां संस्कृत के पंडित, साहित्यकार, कवि और शास्त्रीय संगीतकार थे। सभी को जयपुर लाया गया और हवेली में ससम्मान रखा गया। कलाकार-बुद्धिजीवियों के लिए सभी इंतजाम राजमहल की तरफ से किए जाते थे। दो घोड़े भी दिए गए थे। आराम से रहने के लिए वो दिन भी हमने देखे हुए हैं।
आप अपनी बचपन की कुछ शरारतों के बारे में बताइए क्या इससे आपके परिवार या आस पड़ोस के लोग परेशान होतेे थे?
खैर, तो हुआ यूं कि हम हवेली की छत पर चढ़कर हम सभी लोग पतंग उड़ा रहे थे। अचानक वहां कहीं से बंदरों की सेना आ गई। लाल मुंह वाले बंदरों के झुंड ने हमें घेर लिया। हम सब बुरी तरह डर गए थे। बंदरों ने खौं-खौं जैसी आवाज निकालकर हमें घेरने शुरू कर दिया। ऐसा लग रहा था कि वो हमें काट लेंगे। हम लोग वहां से डर के मारे किसी तरह भागे। सीढ़ियों पर गिरने की परवाह किए बिना हम लोग कूदते हुए किसी तरह नीचे पहुंचे। हम सभी छोटे छोटे थे, इसलिए बहुत डर गए थे। सभी की चेहरे की हवाईयां उड़ी हुई थीं। दहशत बहुत थी हम सभी में। बस ऐसी ही बदमाशियां की बचपन में, कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। हां, इससे उलट मुझे कभी कभी इस बात के लिए ताने जरूर सुनने पड़ते थे कि मैं स्कूल नहीं जाता हूं। आस पड़ोस में लोगों को लगता था कि मैं एक नई परंपरा कायम करने की जिद में ऐसा कर रहा हूं। जबकि ऐसा कुछ नहीं था, बात बस इतनी थी कि मुझे स्कूल की बजाए घर में ही रहकर पढ़ने में मजा आता था। हालांकि मैंने कभी ना तो उन बातों का जवाब दिया ना ही उन पर गौर किया। मुझे पता था कि मुझे अपनी जिंदगी किस तरह जीनी है। मैं स्कूल ना जाने के फैसले को लेकर विश्वास से भरा हुआ था। बाद में मुझे इसका फायदा भी हुआ। मुझे याद है कि जब ‘रिजल्ट’ अच्छा आता था तो मेरी मां और घर परिवार के लोग बहुत खुश होते थे।
आप घर पर ही रहते थे तो घर पर माहौल कैसा होता था और संगीत की तरफ आपकी रुचि कैस बढ़ी
मुझे याद है कि बचपन से ही घर पर हर तरफ से संगीत की धुनें आती थीं। मेरी मां श्रीमती चंद्रकला भट्ट, जयपुर घराने की गायिका थीं। मेरे पिता श्री मनमोहन भट्ट, वो भी गायक थे। मेरे बड़े भाई शशिमोहन, वो सितार बहुत अच्छा बजाते थे। 1957 में जब मैं सात साल का था तब भैया पंडित रविशंकर जी के शिष्य बने थे। मेरे बड़े भाई रवि मोहन जी और महेंद्र जी वायलिन के अच्छे कलाकार थे। मेरी बहन मंजू हैं जो सितार बहुत अच्छा बजाती हैं। अहमदाबाद के एक महोत्सव होता है- ‘सप्तक’। मंजू बहन ही उसे आयोजित करती हैं। मेरे भतीजे कृष्णा भी संगीत से ही जुड़े हुए हैं। यानि कुल मिलाकर हमारा पूरा परिवार ही संगीत से जुड़ा हुआ है। हम सभी भाई बहनों का बचपन संगीत सुन सुनकर ही बीता है। हम संगीत के बीच ही बड़े हुए हैं।