आज आपको पूरी दुनिया में सरोद सम्राट के नाम से जाना जाता है लेकिन एक दौर था जब आपके जीवन में संघर्ष बढ़ता ही जा रहा था, तब आपने कैसे उस समय को काटा?
बचपन में हमने संघर्ष भी देखा। हमारे पिता जी 1957 में दिल्ली आए। वो यहां पर एक संस्था में संगीत सिखाते थे। उस संस्था का नाम था ‘कल्चरल ऑर्गनाइजेशन ऑफ दिल्ली’। फिर वो वक्त भी आया जब उस संस्था ने हमसे कहाकि कि वो हमें भी नौकरी देंगे। उस वक्त वो नौकरी देने में उन्होंने 6 महीने का वक्त लगा दिया। इसके अलावा जब नौकरी देने की बात हुई थी तब 500 रुपये देने का वायदा था लेकिन असल में जब नौकरी मिली तो वो रकम घटकर 300 रुपये हो गई। संस्था की तरफ से कह दिया गया कि हम 300 रुपये ही दे पाएंगे नौकरी करना हो तो करिए वरना जाइए। वो ऐसा वक्त था कि हमें 300 रुपये की नौकरी करनी पड़ी। अभी नौकरी करना शुरू ही किया था कि हमें अलग अलग जगहों से कार्यक्रम के न्यौते मिलने शुरू हो गए। जल्दी ही मुझे लगा कि अपने कार्यक्रमों की वजह से मैं अपनी नौकरी के साथ न्याय नहीं कर पा रहा हूं इसलिए मैंने 6 महीने के भीतर ही इस्तीफा भी दे दिया। उसी ‘कल्चरल ऑर्गनाइजेशन’ ने हमें दिल्ली में किराए का एक घर दे रखा था। वो घर जिस जगह पर ‘इरविन हॉस्पिटल’ हैं वहीं हुआ करता था। जिस जगह पर ‘इरविन हॉस्पिटल’ खत्म होता है और अगर आप ‘मिंटो रोड’ की तरफ जाएं तो वहां बड़े बड़े बंगले हुआ करते थे। उनके सामने अच्छा ‘गार्डन’ हुआ करता था। वहीं हम लोग किराए पर रहते थे। एक दिन अचानक उस ‘कल्चरल ऑर्गनाइजेशन’ की तरफ से नोटिस आ गया कि आप लोग 15 दिन के भीतर घर खाली कर दीजिए। 15 दिन के भीतर दिल्ली में नया घर लेना मुश्किल था। मजबूरन हम लोग पिता जी को लेकर ग्वालियर चले गए। इसके कुछ रोज बाद हमने निजामुद्दीन वेस्ट में एक दूसरा किराए का घर लिया। हम लोग उस घर की पहली मंजिल पर रहते थे, जिसका किराया उन दिनों 250 रुपये था।
क्या वजह थी कि आप सरकारी बंगले में रहना चाहते थे लेकिन आपकी लाख कोशिशों के बाद भी आपको वो नहीं मिला?
1976 में हमारी शादी हुई। शादी के बाद हम लोग पंचशील इंक्लेव में ‘शिफ्ट’ हुए। उस घर का किराया 2500 रुपये था। उस वक्त हमें वो किराया ज्यादा लगता था। फिर हमें लगा कि बहुत सारे कलाकार सरकारी घरों में रहते हैं। हजार दो हजार या शायद इससे भी ज्यादा। उस वक्त तक हमने किसी तरह की सरकारी मदद नहीं ली थी। लिहाजा हम भी गए, उस वक्त हाउसिंग मिनिस्टर हुआ करते थे- पीसी सेठी। पीसी सेठी कांग्रेस के थे। हम उनके पास चिट्ठी लेकर चले गए। मुझे जब भी किसी से मिलने की जरूरत पड़ी मैंने सीधे उस व्यक्ति से जाकर मुलाकात की, फिर चाहे वो कोई ऑफिसर हो, मंत्री हो, सेकेट्री हो या सेक्शन ऑफिसर हो। हमने कभी किसी से ऊपर से कहलवा कर मुलाकात नहीं की। वो भी तब जबकि उस दौर में हम सभी को जानते भी थे। खैर, हमने उन मंत्री जी से मुलाकात की, वो बहुत औपचारिकता से मिले। उन्होंने हमारी चिट्ठी हमसे ले ली। कुछ रोज बाद ही हमारे पास जवाब आ गया कि सरकार के पास ऐसी कोई पॉलिसी नहीं है कि वो हमें घर दे। उस वक्त मेरे दिमाग में आया कि मैं एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करूं और इस बात को सभी के सामने रखूं कि अगर सरकार की ऐसी कोई पॉलिसी नहीं है तो फिर दिल्ली में हजारों कलाकार कैसे सरकारी बंगलों में रहते हैं। फिर ऐसा लगा जैसे गुरू कह रहे हों कि बेटा ऐसा काम मत करो कि पता चला उनके घर भी छिन गए। मैंने वैसा ही किया और सरकारी बंगला पाने की कोशिश छोड़ दी। आज हम लोग दिल्ली के जिस घर में रहते हैं वहां तक पहुंचने का सफर बहुत लंबा है।
आपकी शादी को आज कई बरस बीत चुके हैं लेकिन आप सबसे पहले शुभालक्ष्मी जी से कहां मिले और क्या आपको पहली नज़र में ही उनसे प्यार हो गया था?
मेरी पत्नी से मिलने का किस्सा भी दिलचस्प है। हुआ यूं कि कलकत्ता में एक कला महोत्सव था। वहां बड़े बड़े कलाकार शिरकत कर रहे थे। उस्ताद अमीर खान साहब भी थे। विलायत खान साहब बजा रहे थे। वहां ‘इनका’ भी डांस था। असम के एक बड़े संस्कारिक परिवार से इनका ताल्लुक था। रूक्मिणी जी से ‘इन्होंने’ डांस सीखा था। मैंने इनका डांस देखा और डांस देखते देखते मुझे लगा कि भगवान ने इन्हें मेरे लिए ही भेजा है। उसके बाद तो मिलने से लेकर शादी तक का सफर एक इतिहास है। मेरे ससुर जी परसुराम बरूआ थे, जो आसाम फिल्मों के पहले हीरो थे। उनके बड़े भाई थे पीसी बरूआ, जो कॉंग्रेस से थे। उन लोगों का चाय का व्यापार था। उन सभी लोगों का आशीर्वाद मुझे मिला। पूरा आसाम आज भी मुझे बहुत प्यार करता है। मेरी पत्नी आज भी कलाकार ही हैं, क्योंकि मैं मानता हूं कि ये कहना गलत होगा कि उन्होंने डांस करना छोड़ दिया। छोड़ता कोई नहीं है बस स्टेज का साथ छूट जाता है। फिर भी उनका जो योगदान है मेरे परिवार में, अमान-अयान की परवरिश में, मेरी पत्नी के रूप में, घर की बहू के रूप में…इसीलिए राग सुब्बालक्ष्मी बना जो मैंने चेन्नई में पहली बार बजाया। वो राग मैंने उनके जन्मदिन पर उन्हें तोहफे के तौर पर दिया था। उन्होंने मुझे कितना कुछ दिया है, मैंने उन्हें एक राग दिया। हमारे दो बच्चे हैं- अमान और अयान। वो दोनों सरोद बजाते हैं। मैंने कभी नहीं कहा कि आई एम प्रेजेंटिंग अमान या अयान। मुझे ये बहुत ‘अननैचुरल’ तरीका लगता है। 5-6 साल की उम्र से ये दोनों बजा रहे हैं। इधर उधर, छोटा बड़ा। तब से इन दोनों का रियाज चल रहा है। तब से लेकर आज तक मेहनत करते करते भगवान के आशीर्वाद से अब वो उन जगह पहुंचे हैं जहां लोग उन्हें बुलाते हैं। लोग उन्हें प्यार देते हैं। आशीर्वाद देते हैं। इतना काफी है।