आप बचपन में कैसे रियाज़ करती थींं और आपको ये कब लगा कि आपको सिंगर बनना है?
मेरा जन्म दिल्ली में हुआ था। घर में पापा मम्मी थे और मेरी एक छोटी बहन। मुझे याद है कि मैं बचपन से ही खूब गाती गुनगुनाती थी। दरअसल, घर में सभी को संगीत सुनना बहुत पसंद था। यूं तो उनमें से कोई ‘प्रोफेशनल’ गायक नहीं था लेकिन अच्छा संगीत सुनना सभी को अच्छा लगता था। वहीं से मुझे भी अच्छा संगीत सुनने की आदत पड़ी। फिर पापा ने भी मुझे जमकर प्रोत्साहित किया। उन्होंने हमेशा अच्छी बातें सिखाईं। शायद इसीलिए बचपन से ही मुझे मुश्किल गाने गाना अच्छा लगने लगा। मैं दिन भर गुनगुनाती रहती थी। एक से एक मुश्किल गानों की प्रैक्टिस करती थी। हालत ये थी कि मैं स्कूल के कार्यक्रमों में कम ही हिस्सा लेती थी क्योंकि वहां जो गाने गाए जाते थे वो बहुत आसान होते थे। मेरे दिमाग में था कि मुझे तो मुश्किल गाने गाना है। मुझे याद है कि उस दौर में भी जागरण के अलावा मैं जो कार्यक्रम करती थी उसमें लता जी के गाने गाती थी। लता जी के मुश्किल गाने। उस दौर में मेरे पसंदीदा गाने थे ‘नैना बरसे रिमझिम रिमझिम’, ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’, ‘चिट्ठिये’, ‘ये समां…समां है ये प्यार का’, ‘मेरे महबूब ना जा’, और ‘मोरनी बागा मा बोले’ । मेरे सीखने का अंदाज भी निराला था। मैं कैसेट सुन सुनकर गाना सीखा करती थी। यही वजह थी कि मैंने कभी किसी गुरू से जुड़कर संगीत नहीं सीखा। गायकी की कोई पारंपरिक शिक्षा नहीं ली। जो कुछ सीखा बड़े गायकों को सुनकर।
आपके पिताजी एक्टर थे और आप सिंगर बनीं तो बचपन से ही पता था कि सिंगर बनना है या बाद में ये तय हुआ?
मैं चार साल की उम्र से ही स्टेज शो करने लगी थी। उन दिनों भी दिल्ली में देवी मां के जागरण खूब होते थे। मुझे अक्सर ऐसे कार्यक्रमों में बुलाया जाता था। मैं इतनी छोटी थी कि कई बार कार्यक्रम में देर हो जाने पर मुझे नींद आने लगती थी। ऐसा अक्सर जागरण के कार्यक्रमों में ही होता था। पापा मेरे साथ होते थे। वही मुझे लेकर आते जाते थे। कार्यक्रम खत्म करने के बाद लौटते वक्त वो ‘टू व्हीलर’ पर मुझे अपने पीछे बिठाकर मफलर या चादर से अच्छी तरह बांध देते थे। जिससे मैं नींद में गिर ना जाऊं। मैं पापा के साथ आराम से पीछे बंधकर सोते हुए चली आती थी। नींद पूरी करने का वो अनोखा ‘टाइम’ मिलता था जो मैं कभी नहीं भूल सकती। इसके अलावा भी पापा बहुत सारे ‘फनी एक्ट’ किया करते थे। वो हम लोगों को खूब हंसाते थे। मेरे पापा थिएटर करते थे। वो बहुत अच्छे ‘एक्टर’ रहे हैं। उन्होंने 12 साल तक दिल्ली में ‘नेशनल लेवल’ पर होने वाली रामलीलाएं की हैं। श्रीराम सेंटर की ‘रिपेट्री’ में कई सारे नाटक किए हैं। पापा ने थिएटर की दुनिया में मोहन उप्रेती, रंजीत कपूर जैसे दिग्गज नामों के साथ काम किया। पापा की ‘एक्टिंग’ को लोग बहुत पसंद करते थे। मुझे खुद पापा की एक्टिंग देखने, उनके नाटकों को देखने में बहुत मजा आता था। वो मुझे लेकर जाते भी थे। वहीं से मेरे अंदर भी एक्टिंग का ‘कीड़ा’ आ गया था। पापा को देखती थी तो मेरा मन भी करता था कि ‘एक्टिंग’ करूं लेकिन ज्यादा रूझान गायकी की तरफ था इसलिए फिर पापा ने गायकी को ‘सपोर्ट’ किया और मैंने सिर्फ गायकी पर ‘फोकस’ करना शुरू कर दिया।
मुंबई में आकर गाना गाने की शुरुआत कैसे की आपने?
एक बार मेरे एक शो में अभिनेत्री तबस्सुम जी से आई थीं। उन्हें मेरा गाना बहुत पसंद आया था। बाद में उन्होंने ही मुझे मुंबई बुलाया। मुंबई में जब हम लोग उनसे मिले तो तबस्सुम जी ने मुझे कल्याण जी भाई के पास भेजा। मैं कल्याण जी भाई से मिली उन्हें भी मेरी गायकी पसंद आई। उन्होंने मुझे मौका दिया। उन्होंने मुझे अपने ‘ट्रूप’ में जगह दी और मैंने उनके लिए खूब गाने गाए। देखा जाए तो वहीं से गायकी की शुरूआत भी हो गई। पापा को भी समझ आ गया कि अब मेरे लिए मुंबई में ही रहना जरूरी है। उन्होंने मेरे लिए अपना करियर छोड़ दिया। वो मेरे लिए मुंबई ‘शिफ्ट’ हो गए। वो 1994 का साल था जब हम लोग मुंबई आ गए और मेरा अच्छा खासा गाना शुरू हो गया।
आपके बचपन की कुछ खास यादें हैं क्या जो आप रागगिरी के दर्शकों के साथ शेयर करना चाहेंगी?
आज जब मैं अपना बचपन याद करती हूं कई अच्छी यादें हैं। अपने स्कूल के दोस्तों और टीचरों से मुझे बहुत प्यार मिलता था। वैसे तो मेरा बचपन सामान्य बच्चों की तरह ही था लेकिन मैं शैतान नहीं थी। मुझे नहीं याद आता कि मैंने बचपन में कोई बड़ी शरारत की हो। बस यूं ही घर पर कुछ नाच गाना कर लिया कभी कोई करीबी रिश्तेदार या दोस्त आ गए तो उनके साथ हंसी मजाक कर लिया और हो गई मस्ती। शायद दूसरे बच्चों के मुकाबले फर्क ये था कि मैं बचपन से ही काफी ‘शो’ किया करती थी। जिसकी वजह से स्कूल में मेरी ‘अटेंडेंस’ हमेशा कम ही रहती थी। कई बार मेरा ‘होमवर्क’ तक पूरा नहीं हो पाता था। कभी कभी डांट पड़ जाती थी कि सबकुछ तो ठीक है लेकिन ‘होमवर्क’ तो पूरा कर लो। मेरे ऊपर गायकी का ऐसा नशा था कि मैं इन बातों पर ध्यान ही नहीं देती थी। ऊपर से पापा मम्मी का पूरा ‘सपोर्ट’ था इसलिए थोड़ा डर भी कम ही लगता था। पापा मम्मी कभी नहीं कहते थे कि पढ़ो-पढ़ो। ऐसे माहौल में मुझे मेरी गायकी के लिए वक्त मिला। एक और अच्छी बात ये थी कि मेरे गाने की वजह से मुझे इतना प्यार मिलता था कि मेरे दोस्त और ‘टीचर्स’ कई बार मेरा ‘होमवर्क’ पूरा करा ही देते थे। यहां तक कि दसवीं के बाद मैंने पढ़ाई ही छोड़ दी थी।