शुभा मुदग्ल की आवाज़ का जादू किसी को भी उनका दीवाना बना दें। उनके संगीत में ऐसा मैजिक है जो उसे एक बार सुनता है फिर वो उन्हीं का फैन बन जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि अपनी गायकी के लिए इतनी मशहूर शुभा मुदगल खुद भी अपने अंदर की इस प्रतिभा को नहीं जानती थी। बचपन से उन्होंने कथक डांस सीखा और फिर कैसे डांस सीखते सीखते उनकी गायकी की ओर रुझान हुआ उन्हें शास्त्रीय संगीत सीखने का पहला मौका कब, कहां और कैसे मिला इस बारे में उन्होंने रागगिरी से खास बातचीत में बताया।
आप अपने बचपन के बारे में कुछ बताइये, घर का क्या माहौल था और आप बचपन में कैसे रियाज़ करती थीं?
मैं जब स्कूल में पढ़ रही थी तब का एक राज बताती हूं। बचपन में दो विषय ऐसे थे जिसमें मुझे भयंकर नंबर मिले थे। एक तो फिजिक्स और दूसरा निडिल वर्क यानि सिलाई कढ़ाई। दोनों में एक बार मुझे सौ में से पांच नंबर मिले थे। मेरे पिता जी का स्वभाव ऐसा था कि वो कम बोलते थे लेकिन इशारों में बहुत कुछ बोल जाते थे। पढ़ाई को लेकर उन्होंने ये कह रखा था कि हम नहीं चाहते कि हर रोज तुम्हारे साथ बैठे और कहें कि होमवर्क किया कि नहीं, पढ़ रहे हो कि नहीं, अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे विकास के लिए पढ़ाई जरूरी है तो तुम अपने आप पढ़ो। पढ़ाई में तुम्हें ‘इंटरेस्ट’ होना चाहिए और हमें कुछ नहीं चाहिए। हम तुमसे नहीं कहेंगे कि इतने घंटे पढ़ो तुम अपने आप तय करो कि तुम्हें कब और कितना पढ़ना है। उनकी तरफ से बस ये आदेश था कि क्लास में ‘रेग्यूलरली’ जाना है, वहां कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी। स्कूल का काम पूरा करना है साफ सफाई से करना है। इसके साथ साथ डांस का रियाज करते रहना है।
आप बचपन में कथक सीखती थीं तो फिर सिंगर बनने की सोच आपमें कब और कैसे आयी?
मैंने 4 साल की उम्र से ही कथक सीखना शुरू किया था। जयपुर के गंगानी परिवार के एक जाने-माने गुरू थे। वो घर आकर सिखाते थे। मेरे शास्त्रीय संगीत सीखने की बात दरअसल कथक से संबंधित जो ठुमरी गायन है उससे चली थी। एक दिन मेरी मां ने कहाकि- “तुम डांस सीख रही हो लेकिन तुम्हें गाना भी सीखना चाहिए क्योंकि कथक में ऐसी परंपरा भी है”। वैसे भी उनकी सोच थी कि मेरे अंदर कला के अंतर्संबंधों की समझ होनी चाहिए। वो चाहती थीं कि मैं कथक सीखूं या कुछ और भी सीखूं लेकिन साथ में मुझे गायन भी सीखना चाहिए। इस नजरिए मेरी संगीत की तालीम शुरू कराने की बात हुई थी। पढ़ाई के साथ साथ संगीत सीखने को लेकर हमें कभी लगा ही नहीं कि हम कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं। सबकुछ साथ साथ हो जाता था। घर में ही सुनने का, पढ़ने का, बात करने का माहौल था। कोई नई किताब आई है तो उस पर चर्चा हो रही है। फलां शायर को सुन रहे हैं। मुशायरे में पिता जी जाते थे तो आकर हमें भी सुनाते थे। माहौल ऐसा था कि पढ़ाई और संगीत साथ साथ चलता रहा। मेरा बचपन इसी तरह निकल गया। मुझे कभी ऐसा लगा ही नहीं कि परीक्षा आ गई है, हाय हाय अब तो सबकुछ बंद करना पड़ेगा। परीक्षा के दौरान भी संगीत को लेकर कोई मनाही नहीं थी। उस वक्त तक इलाहाबाद के लोगों को ज्यादातर यही पता था कि मैं कथक करती हूं।
ऐसे करते करते मैं इंटरमीडिएट कॉलेज तक पहुंच गई। तब ‘10+2’ वाला सिस्टम नहीं था। मुझे याद है कि हमारे स्कूल में एक सिस्टर यूजीनिया थीं। एक दिन उन्होंने पिता जी को बुलाया और कहाकि हमारे स्कूल में एक बहुत ही अच्छी शास्त्रीय संगीत सिखाने वाली टीचर आई हैं। उनका नाम है श्रीमती कमला बोस और हम चाहते हैं कि शुभा भी उनसे सीखे। पिताजी ने कहाकि- “लेकिन शुभा तो कथक सीख रही है उसने गाना तो सीखा नहीं है। इंटरमीडियएट कॉलेज में आ भी गई है। ऐसे एकाएक तो कोई शास्त्रीय संगीत सीख नहीं सकता है”। उनकी इस बात पर सिस्टर ने कहाकि- “ शुभा को एक महीना कोशिश करने दीजिए अगर एक महीने बाद ऐसा लगा कि इससे नहीं हो पा रहा है तो ‘सब्जेक्ट’ बदलवा देंगे। हां, लेकिन एक महीना तो शुभा को देखिए”। कमला दी के बारे में क्या कहूं, वास्तव में उनका गाना बहुत ही सरस था। बहुत मधुर था। वो पंडित रामाश्रय झा जी की शिष्या थीं। सीनियर शिष्य। उनका स्वभाव भी बहुत मीठा था। दूसरी तरफ हम लोग एक से बढ़कर एक छटे हुए बदमाश उनकी क्लास में थे। उन्होंने इस प्रेम से सीखाया कि वो एक महीना कब निकल गया हमें पता ही नहीं चला। उन्होंने ही मेरे पिता जी और मां से कहाकि इसको आप गुरू जी के पास ले जाइए। उनके सुझाव पर ही मेरे पिता जी और मां मुझे पंडित रामाश्रय झा जी के पास ले गए। पंडित जी एक तरीके से मां-पिताजी के ‘कॉलीग’ भी थे क्योंकि वो भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संगीत विभाग में पढ़ाते थे। पहली बार मिलने के बाद गुरूजी ने कहाकि इसको थोड़ा सीख लेने दीजिए फिर मेरे पास लेकर आइएगा। मेरे पास इतने ‘एडवांस’ लोग आते हैं कि ‘सारेगामा’ से शुरू करवाना मुश्किल होगा। फिलहाल उसे सीखने दीजिए फिर मेरे पास लेकर आइएगा।
क्या ये बाच सच है कि आपको घर बैठे-बैठे आपके गुरू ने गाना सिखाने का प्रस्ताव रख दिया था?
इसी दौरान मेरा इंटरमीडिएट कॉलेज खत्म हो गया। फिर बीए में दाखिला हुआ। वहां ‘टैलेंट-कॉन्सेट’ हो रहा था। कमला दी से सीखकर मैंने उसमें हिस्सा लिया। मीराबाई का भजन था- बसो मेरे नैनन में नंदलाल। मुझे लगा कि वो भजन तो मुझे अच्छी तरह आता है। मेरा अंदाज भी वही था जो बचपन में या युवावस्था में ही होता है कि हम तो बड़े तीसमांर खां हैं। बस इसी अंदाज में मैं स्टेज पर पहुंची जैसे इस तरह स्टेज पर गाना मेरा रोज का काम है। वहां पहुंचकर सामने देखा तो पंडित जी बैठे हुए हैं जज करने के लिए। उसके बाद मेरी जो घिग्घी बंधी कि पूछिए मत कि उस रोज मैंने कितना बुरा गया। ये बात बीत गई। इसके बाद भी पंडित जी इतने उदार थे कि एक रोज घर आए। दरवाजे पर घंटी बजी तो मैं बड़े आराम से कोई फिल्मी गाना गाते हुए दरवाजा खोलने पहुंची। सामने देखा तो पंडित जी खड़े थे। उन्होंने कहा कि मां पिता जी कहा हैं? वो अंदर आए बैठे और मां-पिताजी से कहने लगे- “ले आइएगा इसको मेरे पास। इतवार इतवार को लेकर आइएगा। मेरे घर पर लाइएगा। हम सीखा देंगे इसको”। ऐसे मेरा उनसे शास्त्रीय गायन सीखना शुरू हुआ।