पंडित हरि प्रसाद चौरसिया के कार्यक्रमों को देखने के लिए आज भले ही सैंकड़ो लाखों लोग आते हों लेकिन आप सुनकर शायद इस बात पर यकीन ना करें कि उनके पहले कार्यक्रम के दौरान जब वो स्टेज पर आए तो उस कार्यक्रम को देखने के लिए आए लोग मैदान से जाने लगे, बिना ऑडियंस के परफॉर्म करने से लेकर बनारसी गुरु कहलाने तक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया जी का ये सफर काफी दिलचस्पस रहा। रागगिरी से हुई खास बातचीत में पंडित हरि प्रसाद चौरसिया जी ने अपने पहले कार्यक्रम से लेकर अब तक आए सभी बदलावों के बारे में बताया
पंडित हरि प्रसाद चौरसिया जी से हमने पहला सवाल ये पूछा कि शुरुआती दिनों में किस तरह के कार्यक्रम हुआ करते थे और अब उनमें क्या बदलाव आ गए हैं तो इस बारे में उन्होंने ये बताया…
मैं जब तक इलाहाबाद में था। वहां संगीत की ऐसी कोई अहमियत नहीं थी। सिवाय ऑल इंडिया रेडियो के और कुछ वहां नहीं था। वहां जो स्टाफ के लोग थे और बनारस से कई कलाकार भी वहां कार्यक्रम करने आते थे। तब बनारस का अपना कोई रेडियो स्टेशन नहीं था। हम लोग उन कलाकारों के दर्शन करने के लिए रेडियो जाया करते थे। उनसे मिलने जाया करते थे कि कितने महापुरूष लोग हैं और मैं तो बच्चों के कार्यक्रम भी किया करता था। लिहाजा मेरा वहां वैसे भी आना जाना था। मेरे गुरू पंडित भोलानाथ जी की नौकरी भी वहीं पर थी। तो उनसे भी मुलाकात होती रहती थी। इलाहाबाद में एक प्रयाग संगीत समिति थी। वहां साल में एक बार हिंदुस्तान के सभी बड़े कलाकार आते थे। बड़े बड़े कलाकार वहीं टेंट में रूका करते थे। वहां प्रयाग संगीत समिति के मैदान में ही टेंट लगाया जाता था। वहीं रहते थे और कार्यक्रम करते थे। लेकिन तब वहां संगीत की इतनी अहमियत नहीं थी जो आज है। उस वक्त आम लोगों के घरों में मां-बाप कहते थे कि संगीत करोगे तो भीख मांगोगे। क्योंकि और तो कोई रास्ता ही नहीं है। कोई ज्यादा कार्यक्रम नहीं होते थे। कार्यक्रम होते भी थे तो कलाकारों को पैसे नहीं मिलते थे। अब उसका पूरा रूप ही बदल गया है। अब ये बदला हुआ स्वरूप कितने दिन रहेगा कुछ कह नहीं सकते क्योंकि तमाम सरकारी नियम आ गए हैं। जीएसटी आयोजकों भी देना है और कलाकारों को भी देना है। जैसे नियम है इसलिए पता नहीं कार्यक्रमों का ये सिलसिला कब तक चलेगा।
पंडित हरि प्रसाद चौरसिया जी को बनारसी गुरु भी कहकर बुलाया जाता है, लेकिन क्यों और इसके पीछे की कहानी क्या है इस बारे में भी जब हमने उनसे पूछा तो उन्होंने बताया
खैर, इलाहाबाद में पैदा होने के बाद भी अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि मुझे बनारसी गुरू क्यों बुलाया जाता है। इसकी दिलचस्प कहानी है। दरअसल ये बनारस की भाषा है। वहां किसी को भी गुरू बना लेते हैं। पानवाले को भी गुरू बना लेते हैं। गुंडों को भी गुरू बना लेते हैं। मुझे भी वहां लोगों ने प्यार से गुरू आ गए, गुरू आ गए कहकर बुलाना शुरू कर दिया। इसका कोई मतलब नहीं है। लेकिन मेरा नाम बनारसी गुरू जरूर पड़ गया। बनारस में दर्जनों बार कार्यक्रम के लिए गया हूं। वहां की तमाम यादें जिंदा हैं। वैसे बनारस के अलावा भी मेरे जीवन में कई कार्यक्रम ऐसे हैं जिन्हें मैं कभी भी भूल नहीं सकता हूं। जैसे मुझे याद है कि मेरा पहला कार्यक्रम रेडिया का था। बच्चों का कार्यक्रम। उस कार्यक्रम में मेरे अलावा कई जाने माने कलाकार हिस्सा लेते थे और गायन-वादन करते थे। हम लोगों के कार्यक्रम की बड़ी चर्चा हो गई थी। लोग दूर दूर से सुनने आते थे कि चलो भाई बच्चे बहुत अच्छा गा बजा रहे हैं। इससे हम लोगों की भी हिम्मत बढ़ी कि हम गा-बजा सकते हैं। इलाहाबाद में वैसे कोई बहुत ज्यादा कार्यक्रम नहीं होते थे लेकिन रेडियो में बहुत सारी गतिविधियां होती थीं जिसमें हम लोग लगे रहते थे। बाद में 1969 में मैंने इलाहाबाद छोड़ा। और मैं उड़ीसा पहुंच गया नौकरी करने के लिए तो वहां बहुत सारे कार्यक्रम होते थे। वहां की परेशानी ये थी कि वहां ओडिसी नृत्य देखने वाले तो बहुत से लोग होते थे लेकिन शास्त्रीय संगीत सुनने वाले लोग कम होते थे।
हमने पंडित हरि प्रसाद चौरसिया जी से जब उनके पहले कार्यक्रम के बारे में बात की तो उनका ये किस्सा काफी चौंकाने वाला था
मैंने ऐसे भी कार्यक्रम किए हैं जब सुनने वाला कोई नहीं था, जो था उसे भी लोग वापस बुला रहे थे। ये घटना काफी पुरानी है। ये बात उस वक्त की है जब मैं स्टेनोग्राफर था और उसके बाद ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी के लिए कटक गया था। भुवनेश्वर कटक के पास ही है। वहां मैं पहली बार बजा रहा था। मेरे साथ में पंडित भुवनेश्नर मिश्रा जी थे। वो भी उड़ीसा के बडे नामी कलाकार थे। मुझे याद है कि उस वक्त तक भुवनेश्वर का बहुत ‘डेवलपमेंट’ नहीं हुआ था। हम लोगों का कार्यक्रम एक बहुत बड़े मैदान में होना था। वहां बहुत सारे लोग बैठे हुए थे। हमारी प्रस्तुति से ठीक पहले डांस का कार्यक्रम था। डांस खत्म होने के बाद जब स्टेज खाली हुआ अभी हम लोगों ने स्टेज पर बैठना शुरू किया ही था तो देखा कि लोग उठकर जाने लगे हैं। तीन-चार सौ लोग एक साथ उठकर जा रहे थे। बस कुछ बच्चे बचे थे वहां जो सो गए थे। जो लोग जा रहे थे उनमें से किसी ने चिल्लाया, चलो जल्दी-चलो जल्दी। मेरे कान में भी ये आवाज गई। हम लोगों ने हाथ जोड़कर कहाकि भैया आप लोग तो जा रहे हैं इन बच्चों को तो रहने दीजिए। कम से कम इनको तो सुनने दीजिए। वो कार्यक्रम कभी भूलता नहीं मुझे।
एक बार आपके कार्यक्रम में बिजली चली गयी थी लेकिन तब भी आपने कंटीन्यू किया ये किस्सा क्या है
ऐसे ही एक बार मैं दिल्ली में बजा रहा था। शंकर लाल फेस्टीवल चल रहा था। मैं जब बजा रहा था तभी लाइट चली गई। करीब आधे घंटे तक लाइट नहीं रही। मैंने कहाकि मैं ‘कंटीन्यू’ करूंगा और मैंने ‘कंटीन्यू’ किया। लोग बैठे हुए थे। एक आदमी भी नहीं उठकर गया। ये तब की बात है जब शंकरलाल फेस्टीवल ‘इनडोर’ होने लगे थे। इससे पहले ये कार्यक्रम खुले मैदान में हुआ करता था। लाइट जाने की घटना तब हुई जब ‘इनडोर’ कार्यक्रम चल रहा था। मेरे साथ शफात बजा रहे थे। मुझे लगा कि अंधेरे में लोग कहां जाएंगे इसलिए मैंने बजाना जारी रखा। फिर जैसे ही लाइट आई मेरा फ्लूट ‘क्रैक’ कर गया। तब जाकर मुझे रूकना पड़ा। लोगों में बड़ा उत्साह था। वो ताज्जुब में थे कि मैंने कैसे बगैर साउंड सिस्टम और बगैर माइक्रोफोन के ‘कंटीन्यू’ किया होगा। उस कार्यक्रम की याद भी अभी तक मेरे जेहन में ताजा है। उस दिन मैं धन्य हो गया। मुझे याद है वो गर्मी का दिन थे। सब अंधेरे में बैठे हुए थे। भगवान ने शायद कहा होगा कि इसकी परीक्षा लेते हैं, कोई नहीं जाएगा। सारे सुनने वाले बैठे हुए थे।