एक संगीत परिवार में घर का माहौल कैसा होता है और संगीत सीखने का प्रैशर होता है या फिर आप मन लगाकर खुद ही संगीत सीख जाते हैं ?
मेरे संगीत सीखने की शुरूआत शास्त्रीय गायकी से हुई। जब माता पिता जी अपने साथ तानपुरा, हारमोनियम और तबला लेकर बैठते थे तब मैंने भी उनके साथ थोड़ा थोड़ा सुर लगाना शुरू किया। पिता जी बहुत मिलनसार थे। मुझे याद है कि पंडित नारायण राव व्यास जी, विनायक राव पटवर्धन जी की जुगलबंदी हुआ करती थी वो लोग घर आते थे। वॉयलिन के मशहूर कलाकार वीजी जोग साहब, डागर बंधु ये सभी दिग्गज कलाकार हमारे घर आते थे। इनके अलावा मशहूर शायर हसरत जयपुरी साहब भी हमारे घर आया करते थे। इन सभी लोगों की महफिल जमा करती थी। मैं बहुत छोटा था इसलिए मुझे इन लोगों के सामने कुछ सुनाने का मौका नहीं मिला लेकिन मेरे बड़े भाई ने इन महान कलाकारों के सामने बजाया है। असल में ऐसा होता है कि जब आपके कान में बचपन से ही संगीत की ध्वनियां जा रही हों तो आपको उनमें से कुछ ध्वनियां याद रह जाती हैं। इस बात का मुझे बहुत फायदा हुआ। मैंने तमाम राग रागिनियां ऐसे ही सुन सुनकर सीखीं। मेरी मां अपनी शिष्यों को बंदिश सिखाती थीं – “ऐ री आली पिया बिन सखी”। मैंने भी ऐसी कई बंदिशें सुन सुनकर याद कर ली थीं। मां के शिष्यों से भी पहले। संगीत में बचपन से ही मेरा बहुत मन लगता था।
क्या बचपन में आपकी शरारतों का असर आपके रियाज़ पर पड़ता था?
चूंकि मैं स्कूल नहीं जाता था इसलिए मेरे दोस्त भी ज्यादा नहीं थे। शुरूआती कामयाबी के बाद इस बात पर मेरा विश्वास बढ़ता जा रहा था कि अगर इंसान में एकाग्रता है तो वो घर पर रहकर ही पढ़ाई कर सकता है। मैं साल भर की पढ़ाई एक महीने में करता था। मेरी संगीत की साधना में व्यवधान ना पड़े इसके लिए मैंने कला विषय चुना था। अगर ‘साइंस’ चुना होता तो निश्चित तौर पर ज्यादा मुश्किल होती। वैसे ज्यादा दोस्त ना होने की एक वजह ये भी थी कि हम लोग साझा परिवार में रहते थे। मेरे घर में ही 25-30 लोग थे। जिसमें कई हमारे हमउम्र बच्चे थे इसलिए मुझे कभी बाहर के दोस्तों की जरूरत भी नहीं पड़ी। परिवार के सदस्यों में से ही मेरे दोस्त भी थे। सच कहूं तो मुझे ये भी लगता था कि ज्यादा यारी दोस्ती के चक्कर में इधर-उधर किया तो जिस जगह पर जरूरी ध्यान लगना चाहिए वहां नहीं लगा पाऊंगा। फिर एक ही परिवार में रहने की वजह से सभी को एक दूसरे का पता भी होता था कि कौन क्या कर रहा है। इन सबके बावजूद मेरे परिवार के जो हमउम्र बच्चे थे वो कभी कभार मुझे बदमाशियों के लिए उकसाया करते थे। वो कहते थे चलो रामनिवास बाग के गोलगप्पे खाकर आते हैं। चलो फिल्म देखकर आते हैं। मुझे याद है कि मैं एकाध बार पिता जी से छुपकर सिनेमा देखने गया भी था। ‘मुगल-ए-आजम’ जैसी फिल्मों के लिए हम बिना बताए चले गए थे। अब मुझे लगता है कि उन फिल्मों को देखना जरूरी भी था। मुसीबत ये थी कि चुपचाप बिना बताए फिल्म देखने तो चले गए लेकिन रियाज छूट गया। बाद में जब पिता जी को पता चलता था कि फिल्म देखने के चक्कर में रियाज छूट गया है तो डांट पड़ती थी। पिता जी कहते थे कि तीन घंटे की फिल्म और आधा घंटा आना-जाना कुल मिलाकर चार घंटे तुमने अपने जीवन के खराब कर दिए। इसके मुकाबले अगर तुमने एक घंटे रियाज किया होता तो ज्यादा अच्छा होता।
आपके परिवार में संगीत की परंपरा शुरु से थी तो क्या संगीत सीखने का कोई प्रैशर था, आपके पिता जी आपको किस तरह संगीत की शिक्षा दिया करते थे?
पिता जी कहते थे कि संगीत एक सागर है। इसकी साधना करनी पड़ती है तब जाकर आपको कुछ मोती मिलते हैं। उसके चलते बचपन से ही ऐसा हो गया कि संगीत को गंभीरता से करना है। जैसा मैंने बताया कि परिवार में संगीत की परंपरा थी ही। इसी वजह से परिवार की तरफ से संगीत से ही जुड़ने का दबाव ना होने पर भी संगीत ही मेरी पसंद बना। इस तरह विधिवत संगीत यात्रा शुरू हुई। पिता जी संगीत सीखाने को लेकर बहुत कड़क स्वभाव के थे। उनको गुस्सा बहुत जल्दी आता था। वो पिता अपनी जगह पर थे लेकिन जब सिखाने के लिए वो गुरु की जगह पर बैठ जाते थे तो फिर सिर्फ गुरू ही रह जाते थे। फिर बाप बेटे का रिश्ता मायने नहीं रखता था। वो मुझे लेकर भी उतने ही ‘स्ट्रिक्ट’ रहते थे जितने बाकि शिष्यों के लिए। कई बार पिता जी से डांट भी पड़ती थी। अगर कहीं कोई गलती हो गई तो सीधा आदेश मिलता था- जब तक ये ठीक नहीं हो जाता तब तक यहां से उठोगे नहीं। फिर वो पुराने जमाने के उदाहरण दिया करते थे। फलां उस्ताद ने कितनी शिद्दत से रियाज किया था। फलां कलाकार ने अपनी चोटी को खूंटी से बांध लिया था। इन उदारहणों को बताने का मकसद हमारे मन में एक तरह का डर पैदा करना होता था कि अगर सुधार नहीं किया तो आज उठने को नहीं मिलेगा। वो तो मां थी, जो बीच में आकर हम लोगों को बचा लेती थीं। मुझे याद है कि मां हर बात संभाल लेती थीं। मां मुझे बहुत प्यार करती भी थीं। उनके साथ मैं खुलकर बात करता था। जब वो संगीत सिखाती थीं तो बड़े धैर्य के साथ सिखाती थीं।
इसके बाद जब मैं करीब तेरह साल का हुआ तो मैंने एक बड़ा फैसला कर लिया। मैंने तय किया कि मैं सितार बजाऊंगा। मैंने सितार बजाना शुरू भी कर दिया। मेरे बड़े भाई शशिमोहन जी सितार के अच्छे वादक थे। हमारी मां गायक थीं पिता जी गायक थे लेकिन हम गायक नहीं बने। वैसे देखा जाए तो ये भी एक संयोग ही है कि पिता जी के बाद की पीढ़ी में हम सभी लोग वादन के क्षेत्र से जुड़ गए। सभी ने वाद्य यंत्रों को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। पिता जी ने जब देखा कि मेरा झुकाव भी वादन की तरफ ज्यादा है तो उन्होंने कभी ‘फोर्स’ नहीं किया कि गायन ही सीखो। इस तरह मैं गायन छोड़ वादन से जुड़ गया।