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हर कामयाब इंसान की कामयाबी का किस्सा भी बेहद दिलचस्प होता है। बॉलीवुड की मशहूर सिंगर अलका याज्ञनिक आज बेहद सफल गायिका हैं लेकिन उनका ये सफर सफलता तक कैसे पहुंचा इस बारे में उन्होंने रागगिरी के साथ खास बातचीत में बताया।

अलका याज्ञनिक जी आप स्कूल की छुट्टियां मनाने मुंबई जाती थी और जहां आपके माता-पिता आपको सिंगर बनाने की कोशिशें भी किया करते थे ये किस्सा क्या है?

बचपन से ही मेरी आदत थी कि जब मेरा मन होता था तब तो मैं गाती थी लेकिन मुझे ये नापसंद था कि मैं किसी और के कहने पर गाना गाने लगूं। एक तरह से बहुत मूडी थी। ऊपर से 9-10 साल की उम्र में ही मेरे ‘पैरेंट्स’ मुझे स्कूल की छुट्टियों में बॉम्बे ले आए थे। उन लोगों ने ‘कॉमन’ दोस्तों से पूछकर, परिचय लेकर मुझे तमाम संगीतकारों के पास ले जाना भी शुरू कर दिया था। कल्याण जी आनंद जी के पास, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी के पास। इन मुलाकातों के लिए उन्होंने काफी जतन किया। क्योंकि उन दिनों इन संगीतकारों से मिलना आसान काम नहीं था। आज लोग आपकी पहुंच में हैं लेकिन उन दिनों इन लोगों से मिलना, इनसे बात करना बड़ा मुश्किल होता था। किसी तरह पापा मम्मी ने बड़ी मेहनत करके इतना नंबर लेकर, अपॉइंटमेंट लेकर मुलाकात की। जहां इन संगीतकारों ने मुझे सुना। सभी ने मेरा बड़ा हौसला बढ़ाया और साथ ही मेरे पापा मम्मी से ये भी कहा कि अभी अलका बहुत छोटी है। इनकी आवाज में थोड़ी ‘मेच्योरिटी’ आए तब ही इसको ‘प्लेबैक सिंगिग’ करनी चाहिए। अगर अभी ये बच्चे के गाने गाएगी तो फिर हमेशा बच्चे के गाने ही गाती रहेगी। ऐसा इसलिए क्योंकि फिल्म इंडस्ट्री का ‘ट्रेंड’ था कि जिसने एक बार जिस तरह का काम किया उससे उसी तरह का काम हमेशा कराया जाता था। कल्याण जी आनंज जी और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी ने मुझे बहुत ‘ग्रूम’ किया। मैं इन लोगों की रिकॉर्डिंग्स सुनती थी। देखती थी कि ये लोग किस तरह से काम करते हैं। कल्याण जी आनंद जी ने तो बहुत ज्यादा सिखाया। प्लेबैक गायकी की हर एक बारीकी उन लोगों ने मुझे सिखाई। ऐसे ही हर बार जब स्कूल की छुट्टी होती थी कि मैं पापा मम्मी के साथ बॉम्बे आ जाती थी। छुट्टियां जब खत्म हो जाती थीं तो वापस कलकत्ता चले जाते थे। वापस पढ़ाई शुरू हो जाती थी। ये सिलसिला कई साल तक चलता रहा।

आपके टीचर्स और आपको दोस्तों को हमेशा ये क्यों लगता था कि आप सिर्फ सिंगर ही बनेंगी?

मैं जिस स्कूल में पढ़ती थी वो बहुत नियम कायदे वाला स्कूल था। वो सिर्फ लड़कियों का स्कूल था। वहां अक्सर ऐसा होता था कि लड़कियां टीचर्स से कहती थीं कि प्लीज आज पढ़ाइए मत आज अलका का गाना सुनेंगे। कई टीचर्स भी मेरे गाने में बहुत ‘इंटरेस्ट’ लेती थीं। अक्सर स्कूल में ‘फ्री पीरियड’ ‘डिक्लेयर’ हो जाता था और मैं क्लास के बीच में बैठकर गाना गाती थी। आए दिन ऐसा होता था। एक बार तो ऐसा हुआ कि प्रिंसिपल ने आकर कहा कि बंद करो ये सब, ये स्कूल है यहां हर वक्त गाना बजाना क्यों चलता रहता है। स्कूल में ‘कल्चरल एक्टिविटीज’ बहुत होती थीं। डांस-ड्रामा खूब होता था। मैं हमेशा इन तरह के कार्यक्रमों में हिस्सा लेती थी क्योंकि इसी बहाने मुझे पढ़ाई से छुट्टी मिलती थी क्योंकि ‘रिहर्सल’ में जाना होता था। जो बच्चे डांस ड्रामा में हिस्सा लेते थे उनकी ‘रिहर्सल’ होती थी और उन्हें पढ़ाई से छुट्टी मिल जाती थी। स्कूल में हर कोई ये कहता था कि एक दिन इसका बहुत नाम होगा। ये बहुत बड़ी सिंगर बनेगी और मैं कहती थी कि नहीं नहीं मैं तो बस ऐसे ही गाती हूं। आज कलकत्ता जाने पर जब कोई पुरानी दोस्त मिलती थी तो यही कहती हैं कि हमें तो उसी वक्त से पता था कि तुम कुछ ना कुछ करने वाली हो।

अलका जी हमने सुना है आप स्कूल में पढ़ने के लिए नहीं बल्कि ‘एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी’ के लिए जाती थी लेकिन फिर भी आप हमेशा अव्वल कैसे आती थी?

पढ़ने में मेरा बिल्कुल मन नहीं लगता था। लेकिन नंबर अच्छे आते थे क्योंकि पढाई को लेकर एक ‘बेसिक’  समझ मेरे अंदर थी। हमेशा फर्स्ट डिवीजन आती थी लेकिन ये भी सच है कि अगर मैं अपने आप को ‘अप्लाई’ करती तो फिर मैं एक ‘ब्रिलिएंट स्टूडेंट’ हो सकती थी। ये समझिए कि जिस बच्चे को 90 नंबर मिल सकता था उसे 70 या 75 नंबर मिलता था। बेसिकली पढ़ाई में अच्छी थी लेकिन खुद को ‘अप्लाई’ नहीं करती थी। स्कूल जाना पसंद तो था लेकिन ‘एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी’ के लिए। पढ़ना लिखना बहुत पसंद नहीं आता है। मेरा स्कूल बहुत ‘पर्टिकुलर’ था। हमारी प्रिंसिपल एक यूरोपियन महिला थीं। इसलिए वहां कोई ‘कैजुअल सिस्टम’ नहीं चलता था कि पढ़ाई लिखाई किए बिना काम चल जाए। ऐसा भी नहीं होता था कि कोई टीचर मेरी गायकी से खुश हो गया है तो ‘एक्सट्रा’ नंबर दे देगा। पापा मम्मी भी पढ़ाई को लेकर किसी तरह की रिआयत नहीं देते थे। गाने के साथ साथ पढ़ाई करनी होती थी। क्योंकि गायकी में वो मुझे कुछ बना देने के लिए सोचते भी नहीं थे। वो तो बस ये चाहते थे कि मेरे अंदर अगर कोई पैदाईशी हुनर है तो मैं उसका कुछ करूं। मेरा हुनर दुनिया के सामने आए उसे एक पहचान मिले यही मेरे पापा मम्मी की चाहत थी। चूंकि मैंने बॉम्बे बहुत कम उम्र में जाना शुरू कर दिया था इसलिए उन्हें ये भी लगता था कि अभी मेरे पास बहुत सारा वक्त है। ऐसा नहीं है कि वक्त निकला जा रहा है अब क्या करियर बनाएंगे। वो लोग तो पूरे धैर्य और संयम से थे कि अभी बिटिया बहुत छोटी है, धीरे धीरे उसका रास्ता बनेगा। हां, लेकिन मैं परेशान हो जाती थी कि ये चक्कर कब तक चलेगा। मेरे अंदर कोई सपना भी नहीं था कि मुझे कोई बहुत बड़ा गायक बनना है या कोई बहुत बड़ा स्टार बनना है। मैं बिंदास थी। जो भी संघर्ष था वो मेरे पापा मम्मी ने किया।  मेरी मुश्किल ये थी कि लंबे समय तक मैं बॉम्बे सिर्फ छुट्टियों में जाती थी लिहाजा अगर कोई मुझे बीच में बुलाना चाहे तो भी मैं वहां होती नहीं थी। मान लीजिए कि कोई संगीतकार मुझे अगले महीने की तारीख देता था तो मैं जा ही नहीं सकती थी क्योंकि अगले महीने मुझे कलकत्ता में अपने स्कूल जाना होता था। पापा मम्मी हमेशा कहते थे कि पढ़ाई तो ‘रेग्यूलर’ चलनी चाहिए। पढ़ाई और गायकी का ‘बैलेंस’ उन्होंने ही बनाया। मैं हमेशा कहती हूं कि पापा मम्मी के परिश्रम और उनके ‘मॉटिवेशन’ से ही मैं जो हूं सो हूं। वरना मैं यूं ही शौकिया गाती रहती।

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