रंज माने रंगना। सात स्वरों से रंगना। उस्ताद अमीर खा़न को सुनते संगीत के सातों स्वरों से तन और मन दोनों ही रंग जाते हैं। कहें वह गाते ही नहीं है बल्कि अपने गान के जरिये सुर चिंतन करते हैं। सुर कल्पनाओं का अनूठा संसार है उनका गान। दर्शन की गहराईयां लिए। पहली बार सुनेंगे तो उनके गान की धीमी बढ़त और स्वरों के उतार-चढ़ाव की दुरूहता से कुछ झल्लाहट भी होगी।…धीमी आलापकारी में गान की उनकी बढ़त, स्वर विवर्धन की तान एकबारगी सुनने वाले के धैर्य की परीक्षा ही तो लेती है लेकिन जैसे-जैसे उनके स्वरों की गहराई में डूबते जाएंगे, स्वर सम्मोहन का जादू भी अनुभूत होने लगेगा। किराना घराने के अधिकांश संगीतकार इस बात पर सदा ही जोर देते रहे हैं कि खयाल गायकी में शब्दों का खास कोई महत्व नहीं होता परन्तु उस्ताद अमीर ख़ां इस दृष्टि से निराले हैं। सुनते हैं तो साफ पता चलता है खयाल गान में भी वह शब्द के भीतर के उजास को जैसे गहरे से जीते है।
शास्त्रीय संगीत की गंभीर भैरव, तोड़ी, ललित, मारवा, पूरिया, मालकौंस, केदार, दरबारी, मुल्तानी, पूर्वी, अभोगी, चन्द्रकोष, हेम कल्याण, मारवा, रागेश्री, शुद्ध कल्याण, शुद्ध सारंग आदि तमाम रागों में वह गायकी के अनूठे भव में ले जाते हैं। ऐसा लगता है, खुद भी वह गाते लीन हो जाते। कुछ भी तो नहीं बचता। बस संगीत के उनके सुर भर रहते हैं। मन को तरंगायित करते। सुनते हैं तो स्वरों, सरगम और गान के भीतर के दर्शन से साक्षात् होने लगता है। सुरों की अद्भुत लयकारी। बारीकियां। सच! वह गाते नहीं संगीत की अनंतता के सागर की जैसे सैर कराते हैं। चैनदार खयाल गायकी की उनकी रागदारी भीतर के हमारे खालीपन को जैसे भरती है। भले लाख यह कहा जाये कि खयाल में शब्दों का कोई महत्व नहीं है, परन्तु अमीर खान अपनी गायकी में बार-बार इसे झुठलाते हैं। इस बात से कभी उन्होंने इतेफाक भी नहीं रखा कि खयाल में शब्दों का महत्व नहीं होता। इसीलिये प्रायः वह कहते भी थे, ‘खयाल में पोएटिक तत्वों का उतना ही महत्व है जितना रागात्मक तत्वों का। यदि कलाकार को काव्य की समझ है तभी वह अच्छा संगीतकार हो सकता है।’ उन्हें सुनते हैं तो उनका यह कहा मन में बार-बार घर करता है। खयाल तराना में सुर चिंतन, शब्द चिंतन की उनकी गहराई में इसे गहरे से अनुभूत किया जा सकता है।
मुझे लगता है, यह उस्ताद अमीर खां ही हैं जिन्होंने खयाल गायकी को अपने तई शब्द संस्कार दिये। द्रुत तीन ताल में उनका गाया ‘गुरू बिन ज्ञान…’ कानों में गूंजने लगा है। वह गा रहे हैं और शब्दों में निहित भावों की गहराई सुरों से जैसे दिल में उतरने लगी है। राग मालकौंस में उनके गाये शब्द ‘जिनके मन राम बिराजे…’ भी सुन लें। शब्दों में निहित संवेदना हर ओर, ही छोर आप पाएंगे। रागों के निभाव में लयकारी और तानकारी की जो मौलिक सृष्टि अमीर खां करते हैं, उसे क्या बयां किया जा सकता है! भींडीबाजार घराने की खयाल गायकी की जिस धीमी गत को उनकी गायकी की मेरूखंड पद्धति कहा जाता है, मुझे लगता है वह पूरी तरह से संस्कारित और जगचावी अमीर खां की गायकी से ही हुई।
उस्ताद अमीर खां को सुनते हम अपने आपको जैसे गुनने लगते हैं। क्रमिक स्वर विस्तार में वह दर्शन के उस लोक में जाते दिखते हैं जिसमें व्यक्ति अपने होने की तलाश करता है। सधी हुई स्वर लहरी, तान और मींड की मिठास। राग वही जिसे पहले सुनते रहे हैं परन्तु उसका निर्वाह सर्वथा मौलिक। एक प्रकार का राग लालित्य वहां है। श्रोता को प्रभावित करने की कोई चाह नहीं। शुद्धता में लोकप्रियता की मिलावट का कहीं कोई प्रयास नहीं। कह लीजिए उनके गान में कहीं कोई आडम्बर नहीं मिलेगा। स्वर संधान की अद्भुत प्रतिभा। सुरों के अनूठे लोक का सृजन। आलाप में स्वरों की बढ़त। ‘खंडमेरू या मेरूखंड’ के बारे में कहा जाता है कि गणित के अनुसार वहां स्वरों का उलट फेर होता है। चैदहवीं शताब्दी के सारंगदेव लिखित संस्कृत ग्रंथ संगीत रत्नाकर में इसका उल्लेख मिलता है। खां साहब इसी पद्धति में आलाप की बढ़त करते। ऐसा करते दरबारी कान्हड़ा और मिंया मल्हार जैसी रागों में मध्य सप्तक से पंचम तक पहुंचने में भी उन्हें काफी समय लगता परन्तु मुझे लगता है यही उनके गान की वह विशेषता और मौलिकता है जिसमें राग की मूल भावना को वह गहरे से जीते थे।…भले वह आलाप के बाद मध्य सप्तक से पंचम तक पहुंचने में वक्त लेते परन्तु इस अंतराल को गुनें तो पता चलेगा भीतर की उनकी संगीत सघनता, अनुभवों का भव और स्वरों को परोटने की दार्शनिक लाक्षणिकता से हम साक्षात् हो रहे हैं। गान की उनकी इस लाक्षणिकता पर पंडित भीमसेन जोषी तो मुग्ध ही थे। कहीं पढ़ा याद आ रहा है, पंडित भीमसेन जोशी से किसी ने तारीफ करते हुए कहा था कि उनकी गायकी समझ आती है परन्तु अमीर खां की गायकी समझ नहीं आती। पंडितजी ने इसका बेहद सधा जवाब दिया। कहा, मैं अमीर खां को सुनता हूं, आप मुझे सुन लीजिए।’
बहरहाल, गायकी में सुरों की साधना, युग स्पन्दन और सुरों की अलौकिकता के साथ अद्भुत निभाव को समझना है तो अमीर खां की गायकी को सुनना होगा। गान की उनकी इन बारीकियों में उतरते लगेगा वहां घराने की परम्परा की लकीर ही नहीं पीटी गयी है बल्कि युगीन संदर्भों में रागों को अपने तई गहरे से साधा गया है। उनकी गायकी का फक्कड़पन भीतर की हमारी संवेदना को जगाता है। सुना उन्हें पहले भी है परन्तु इधर एक जुनून सा हुआ और उनकी गायकी के उपलब्ध रिकार्ड ढूंढ-ढूंढ कर सुने। तीन महिने तक यही चलता रहा। गान में सुध-बुध खोये गायक के स्वर निभाव में जितना उतरा, और उतरने की चाह प्रबल हुई। लगा, यह अमीर खां ही हैं जिनके गान में शब्द का ओज भीतर के हमारे खालीपन को अनायास रोशनी देने लगता है। सुनता हूं तो अज्ञेय का कहा अनायास जेहन में कौंधता है, ‘शब्द ब्रह्म है।’ अमीर खां की गायकी इस शब्द ब्रह्म से साक्षात की गायकी ही तो है। फिल्म डिविजन ने उन पर कभी एक वृत्त चित्र भी बनाया। इसे देखते लगता है, जिस सादगी और सौम्यता में उनका व्यक्तित्व रमा था, वही उनकी गायकी का भी आधार था। धीर-गंभीर व्यक्तित्व। धीर गंभीर गान।
डॉ. राजेश कुमार व्यास
लेखर संस्कृतिकर्मी कवि, कला आलोचक और स्तम्भकार हैं। कविता, यात्रा और कलाओं पर इनकी 21 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दूरदर्शन पर इनके शोध एवं आलेख पर आधारित 21 कडि़यों का यात्रा वृतान्त धारावाहिक ‘डेजर्ट कॉलिंग’ प्रसारित। राजस्थानी साहित्य अकादेमी द्वारा कविता का सर्वोच्च सम्मान, साहित्य अकादमी की यात्रा फैलोशिप, भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय का प्रतिष्ठित ‘राहुल सांकृत्यायन’, ‘माणक अलंकरण’ सहित बहुत से पुरस्कार और सम्मान।