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कहते हैं मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है वही होता है जो मंज़ूरे खुदा होता है… ये कहावत पंडित हरि प्रसाद चौरसिया जी के लिए कही जाए तो गलत नहीं होगा। भला ऐसा क्या नहीं था जो उनके जीवन में ना हुआ हो, छोटी सी उम्र में ही उनकी माता जी का गुजर जाना, एक पहलवान पिता जो कभी नहीं चाहते थे कि उनका बेटा बांसुरी वादक बने ऐसे में लाख चाहने के बावजूद भी बाबा अलाउद्दीन खान साहब से संगीत सिखने का मौका छोड़ना पड़ा, एक नौकरी ऐसी मिली कि जलन के मारे उन्हें लोगों ने इतना दुखी किया कि वो इससे पहले कुछ कर पाते उनका ट्रांसफर करवा डालते लेकिन लाख बाधाओं के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी उनका ये संघर्ष लगातार जारी रहा और बिना किसी को दुख पहुंचाए या छल-कपट किए उन्होंने वो सब पाया जिसकी कल्पना शायद ज्यादातर लोग सिर्फ सपनों में ही कर पाते हैं। रागगिरी से हुई खास बातचीत में पंडित जी ने अपने संघर्ष की कुछ कहानियां हमारे साथ शेयर की

पंडित जी आपको बाबा अलाउद्दीन खान साहब संगीत सिखाना चाहते थे आपसे वो बेहद प्यार भी करते थे लेकिन फिर ऐसी क्या वजह थी कि आप उनसके संगीत सीखने कभी मैहर नहीं जा पाए

तब मैं छोटा ही था। हुआ यूं कि एक बार बाबा अलाउद्दीन खान साहब ने मुझे सुना। उन्होंने मुझे सुनने के बाद कहाकि तुम मेरे साथ मैहर चलो। मेरे पास उन्हें सच बताने के अलावा कोई चारा नहीं था। मैंने उन्हें बताया कि अगर मैं उनके साथ गया तो मेरे पिता जी मुझे तोड़ देंगे। वो पहलवान हैं। फिर मैंने उनसे कहाकि अगर मौका मिल गया तो जरूर आऊंगा। उन्होंने उसी रोज मुझसे कहाकि मैं ज्यादा दिन अब जिंदा नहीं रहूंगा। मेरे ना रहने पर भी अगर सीखने का मन करे तो मेरी बिटिया के पास जाना। दरअसल बाबा हर महीने इलाहाबाद आया करते थे रेडियो में कार्यक्रम के लिए। वो मुझे संदेश देकर बुलवाया करते थे कि उस लड़के को बुलाओ। वो जिस होटल में ठहरते थे उनका बेटा मेरे साथ पढ़ता था। वो आकर मुझे बताता था कि बाबा याद कर रहे हैं तो मैं जाता था उनसे मिलने। मैं उन्हें प्रणाम करता था तो खुश होकर वो मुझे गोद में बिठा लेते थे। फिर जब वो सिगरेट पी लेते थे तो कहते थे चलो अब मेरे साथ बजाओ। फिर वो वायलिन ले लेते थे। उनका स्केल भी ‘ई’ था। मैं उनके साथ बजाने में बहुत डरता था। मैं उन्हें सुनने बैठ जाता था। फिर वो कहते थे- बजाओ। मैं कहता था बाबा आपके साथ मैं नहीं बजा सकता हूं। मैं बस आपको सुनूंगा। वो मुझे बहुत प्यार करते थे। खुद ही कहते थे कि नहीं नहीं तुम भी बजाओ।

आपके पिता जी को आपका बांसुरी बजाना बिल्कुल भी पसंद नहीं था लेकिन फिर आप इतने बड़े बांसुरी वादक कैसे बनें क्योंकि घर में तो कभी रियाज को मौका आपको मिला ही नहीं होगा

इधर घर की हालत कुछ ऐसी थी कि चाहकर भी बांसुरी को लेकर ज्यादा बात नहीं हो सकती थी। दरअसल, मां के जाने के बाद पिताजी ने इसलिए शादी नहीं कि थी कि वो हमारी देखभाल किसी और से नहीं कराना चाहते थे। बचपन में कई बार तो वो हम लोगों के लिए खुद खाना पकाया करते थे। अपनी तरफ से उन्होंने हम लोगों की देखभाल में कोई कमी नहीं की। इसी तरह मेरा सीखना चलता रहा। इलाहाबाद में रेडियो से जुड़े होने की वजह से पैसे भी मिलते थे। लेकिन फिर मुझे उड़ीसा में नौकरी मिल गई। मैंने तय किया कि मैं उड़ीसा जाऊंगा। पिता जी को जब पता चला कि मैं उड़ीसा जाने के लिए तैयार हूं तो उन्हें बहुत दुख हुआ। जब मैं जाने लगा तो बड़ी विचित्र स्थिति बनी। दरअसल एक तो मैंने पिता जी से छुप-छुप कर बांसुरी बजाना सीखा था। वो कभी नहीं चाहते थे कि मैं बांसुरी बजाना सीखूं। उसके बाद मैंने उन्हें बताए बिना ही नौकरी पर जाने का फैसला कर लिया। जाहिर है पिताजी को दुख हुआ था। वो चाहते थे कि मैं उनके पास ही रहूं। उस रोज मैंने अपने जीवन में पहली और आखिरी बार किसी पहलवान की आंख में आंसू देखे थे। उन्होंने कहाकि बेटा क्यों जा रहे हो, तो मैंने उन्हें बताया कि जितने पैसे मुझे यहां मिलते हैं उससे दोगुनी तनख्वाह वहां मुझे सरकार की तरफ से मिलेगी। तब भी उनकी इच्छा नहीं थी कि मैं जाऊं। मैंने झूठ बोला कि मैं जल्दी ही वापस आ जाऊंगा। ये बताकर मैं निकल गया। बाद में जब उन्हें लोगों ने बताना शुरू किया कि आपका बेटा यहां बजा रहा था, वहां बजा रहा था तो वो संतुष्ट हो गए। उन्हें खुशी होने लगी। मैंने कई बार बाद में प्रयास किया कि उन्हें अपने साथ ले आऊं लेकिन वो माने नहीं। उनका मन पहलवानी में ही बसता था। वो दूसरों से मेरी तारीफ-सुन सुनकर खुश हुआ करते थे। कहते भी थे कि चलो अच्छा है कि तुम जो कर रहे उसमें खुश हो लेकिन वो इलाहाबाद में ही रहे।

क्या ये सच है आपकी प्रसिद्धि से कुछ लोगों को इतनी जलन हुई कि उन्होंने आपको सबक सिखाने के लिए मुंबई भिजवा दिया और उस समय मुंबई को लोग काले पानी की सजा की तरह देखा करते थे, ये किस्सा क्या है

कुछ समय बाद उड़ीसा में हमारा थोड़ा नाम हो गया था। बहुत सारे लोग मुझे सुनने आते थे। कई लड़कियां हमको सुनने के लिए आती थीं। कोई खाना बनाकर ला रहा है, कोई नाश्ता बना कर ला रहा है। लोगों को मुझसे थोड़ी जलन होने लगी कि बाहर से आकर ये कलाकार इतना नाम कमा रहा है, इतना लोकप्रिय हो रहा है। वहां के एक अधिकारी ने मुझे जानबूझकर मुंबई ट्रांसफर कर दिया। मुंबई को उस समय काले पानी की सजा की तरह देखा जाता था। क्योंकि जितने पैसे मिलते थे उतने पैसों में मुंबई में गुजारा करना बहुत मुश्किल था। इसलिए वहां उड़ीसा में कुछ लोगों ने सोचा कि इसे मुंबई भेज दिया जाए, ये वहां क्या करेगा। क्या खाएगा, क्या रियाज करेगा और क्या कार्यक्रम करेगा। ये अलग बात है कि मेरी किस्मत में कुछ और लिखा था। मुंबई में ही फिल्मों में काम करने की शुरूआत हुई। जब मैं मुंबई आ गया तो मुझे लगा कि इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता है। स्टूडियो में बंद होकर काम करना होता था। काम कर दिया। घर ले लिया। गाड़ी ले ली। बस और क्या बचा है। कुछ आगे करना चाहिए। ये सोचकर मैं अन्नपूर्णा जी के पास गया। उन्होंने साफ साफ कह दिया कि वो फिल्मों में बजाने वालों से दूर रहती हैं, उस पर उन्होंने कभी बांसुरी तो बजाई भी नहीं है। मुझे याद है वो कहने लगीं कि आपका तो बड़ा नाम है फिर आप मेरे पास क्यों आना चाहते हैं। उनको मनाने का दौर 2-3 साल तक चलता रहा। मैंने एक रोज यहां तक कह दिया कि अगर आप नहीं सिखाएंगी तो मैं अब सीखूंगा भी नहीं। स्टूडियो में ही बजाता रहूंगा और स्टूडियो में ही एक दिन दम तोड़ दूंगा। फिर दो- तीन साल बाद वो मान गई। उन्होंने मुझसे कहाकि ये फिल्म संगीत नहीं है अगर शास्त्रीय संगीत सीखना चाहते हो तो कुछ करना होगा। मैंने भी बात-बात में दाएं हाथ की बजाए बाएं हाथ में बांसुरी पकड़ कर बजाई और उन्हें सुनाया। वो मैहर की बड़ी संभ्रांत महिला थीं। ऐसे किस्से भी मशहूर हुए कि उन्होंने एक दिन मुझे डराने के मकसद से पुलिस को बुलाने की धमकी दी थी, लेकिन इसमें कुछ भी सच नहीं है।

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