उस गरजती आवाज़ को याद कीजिए। संगीत के आकाश में गूंजती ऐसी आवाज़ जो संगीत के दिग्गजों को भी नतमस्तक कर देती है। गमक से भरी हुई लेकिन हथेली से गिरते सरसों के दानों की तरह आज़ाद तानें, मंद्र से कब मध्य में गए, कब तार सप्तक के गंधार और पंचम को छूकर उन्हीं दानेदार तानों को पकड़े सर्र से नीचे उतर गए, समझते-समझते वो आ गया- सम। बाजो रे बाजो, बाजो मांदलरा..। आलाप, स्वर विस्तार, बोल बनाव, बहलावा, तिहाइयां, आवाज़ का लगाव, कुछ भी सुनिए, बस बेजोड़।
ये सब ऐसे ही नहीं हो गया था। कर्नाटक के धारवाड़ में पैदा हुए भीमसेन ग्यारह साल के थे, जब खान साहब अब्दुल करीम खान की आवाज़ कान में पड़ी थी और ठान लिया था कि गायक ही बनना है। कहते हैं कि तभी वो गुरु की तलाश में घर छोड़कर निकल भागे थे। कई साल तक दिल्ली, कोलकाता, ग्वालियर, लखनऊ और रामपुर की खाक छानते रहे। ग्वालियर में सरोद के उस्ताद हाफिज़ अली खान (उस्ताद अमजद अली खान के पिता) से राग मारवा और पूरिया सीखा और ख्याल गायकी की शुरुआती तालीम ली। आखिरकार जिस गुरु की तलाश थी वो उनके गृह ज़िले धारवाड़ में ही मिले। गुरु सवाई गंधर्व उसी अब्दुल करीम खान के शिष्य थे जिनकी आवाज सुनकर भीमसेन को संगीत के समंदर में उतरने की प्रेरणा मिली थी। भीमसेन गुरु के घर में ही रहने लगे। छह सात साल तक गुरु की सेवा करना, घर के काम करना और गुरु से ज्ञान लेना। गुरु से ये संस्कार मिला कि दिनचर्या में नियमित तौर पर कठिन रियाज़ होना चाहिए। गुरु शिष्य परंपरा से भीमसेन ने 1940 तक गायकी की बारीकियां सीखीं। 1943 में मुंबई पहुंचे और रेडियो कलाकार के तौर पर काम करना शुरू किया। 19 साल की उम्र में उन्होने पहला लाइव प्रोग्राम किया, इसके बाद से ही वो नोटिस होने लगे।
भीमसेन को खयाल गायकी का स्कूल कहा जाता है। संगीत के छात्रों को बताया जाता है कि खयाल गायकी में राग की शुद्धता और रागदारी का सबसे सही तरीका सीखना है तो जोशीजी को सुनो। उन्होने कन्नड़, संस्कृत, हिंदी औऱ मराठी में ढेरों भजन और अभंग भी गाए हैं जो बहुत ही लोकप्रिय हैं। भीमसेन जोशी ने पं हरिप्रसाद चौरसिया, पं रविशंकर और बालमुरलीकृष्णा जैसे दिग्गजों के साथ यादगार जुगलबंदियां की हैं। युवा पीढ़ी के गायकों में रामपुर सहसवान घराने के उस्ताद राशिद खान के साथ भी उन्होंने गाया है। लेकिन समकालीन शास्त्रीय गायन या वादन जोशी जी का मन नहीं लुभा पाता था। उनपर एक डॉक्यूमेंट्री बनाते हुए गुलजार ने पूछा- ‘आजकल के जो गायक हैं उन्हें सुनते हैं तो कैसा लगता है?’ तो जोशी जी का जवाब था ‘हमने जो बड़े गुलाम अली, अमीर खां और गुरुजी को सुना है वो कान में बसा हुआ है। आज बहुत सारे गानेवाले हैं, समझदार हैं, अच्छी तैयारी भी है, लेकिन उनका गाना दिल को छू नहीं पाता।‘ भीमसेन उस संगीत के पक्षधर थे जिसमें राग की शुद्धता के साथ ही उसको बरतने में भी वो सिद्धि हो कि सुननेवाले की आंखें मुंद जाएं, वो किसी और लोक में पहुंच जाए। भीमसेन जोशी की गायकी स्वयं में इस परिकल्पना की मिसाल है।
उन्हें गायकी का भीमसेन में बनाने में उनके दौर का भी बड़ा योगदान है। ये वो दौर था जब माइक नहीं होते थे, या फिर नहीं के बराबर होते थे। इसलिए गायकी में स्वाभाविक दमखम का होना बहुत जरूरी माना जाता था। गायक और पहलवान को बराबरी का दर्जा दिया जाता था। जोशी जी के सामने बड़े गुलाम अली, फैयाज़ खां, अब्दुल करीम खां और अब्दुल वहीद खां जैसे सीनियर्स थे जो गले के साथ ही शरीर की भी वर्जिश करते थे और गाते वक्त जिन्हें माइक की जरूरत ही नहीं होती थी। समकालीनों में भी कुमार गंधर्व थे, मल्लिकार्जुन मंसूर जैसे अखाड़ेबाज़ गायक थे।
एक समय था जब शास्त्रीय संगीत दरबारों में, घरानों में कैद था। गंधर्व महाविद्यालय, प्रयाग संगीत समिति और भातखंडे विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं के आने का असर ये हुआ कि आम लोगों के बीच शास्त्रीय संगीत की पहुंच तेजी से बढ़ने लगी। लेकिन साथ ही संगीत की क्वालिटी के स्तर पर बड़ा ह्रास हुआ। जोशी जी भी मानते थे कि संस्थाओं में कलाकार पैदा नहीं किए जा सकते, कलाकार बनने के लिए गुरु के सामने समर्पण ही एक रास्ता है। भीमसेन जोशी देशभर में घूम-घूमकर कलाकारों को खोजते थे और अपने गुरु की याद में शुरू किए गए सवाई गंधर्व महोत्सव में उन्हें मंच देते थे। पुणे में आयोजित होनेवाले इस समारोह की ख्याति इतनी है कि यहां प्रस्तुति देने का अवसर पाकर कोई भी कलाकार गौरवान्वित महसूस करता है।
मिया की तोड़ी, मारवा, पूरिया धनाश्री, दरबारी, रामकली, शुद्ध कल्याण, मुल्तानी और भीमपलासी भीमसेन जोशी के पंसदीदा राग रहे। लेकिन मौका मिलने पर उन्होने फिल्मों के लिए भी गाया। 1956 में आई फिल्म बसंत बहार में संगीतकार शंकर-जयकिशन ने उनसे एक ऐसा गीत गवाया था जिसमें उन्हें मशहूर गायक मन्ना डे के साथ मुकाबला करना था। इतना ही नहीं, उन्हें इस मुकाबले में हारना था क्योंकि मन्ना डे हीरो यानी भारत भूषण के लिए गा रहे थे। इस रिकॉर्डिंग से पहले मन्ना डे बहुत घबराए हुए थे, लेकिन बकौल मन्ना डे, भीमसेन ने कहा – ‘अरे आप तो अच्छा गाते हैं, मैने सुना है आपके बारे में, चलिए गा लेंगे, कर लेंगे।‘ ये गीत ‘केतकी गुलाब जुही चंपक वन फूले‘ काफी चर्चित हुआ। उन्हें देश का भी भरपूर प्यार मिला। संगीत नाटक अकादमी, पद्म भूषण समेत अनगिनत सम्मान के बाद 2008 में जोशी को भारत रत्न से नवाजा गया।
जोशीजी बड़े सादे इंसान थे। उन्हें कार चलाने का शौक था। मर्सिडीज की कारें उनकी कमजोरी थीं। जवान थे तो तैराकी, योग और फुटबॉल खेलने का शौक रखते थे। शराब पीना उनका शौक था लेकिन कहते हैं कि करियर पर असर होते देखकर उन्होने पीना छोड़ दिया था। संगीतज्ञों के बीच एक कहावत है- जब तक कला जवान होती है तब तक कलाकार बूढ़ा हो चुका होता है। जोशी जी भी तन से बूढ़े हुए और 24 जनवरी 2011 को तकरीबन नवासी साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गए। आज के संगीत जगत में भीमसेन जोशी घर के एक बड़े बुजुर्ग की तरह थे। बुजुर्ग, जिनके रूप में एक पूरा का पूरा युग हमारे बीच मौजूद रहता है, जिनकी उपस्थिति ही शुभ का, सुरक्षा का अहसास देती है, बताती है कि हम अनाथ नहीं हुए हैं। जोशीजी के जाने के साथ ही समकालीन संगीत के सिर से एक बड़े-बुजुर्ग का हाथ उठ गया। भारत के राष्ट्रपति ने हाल ही में देश के बड़े संगीतकारों के नाम के डाक टिकट जारी किए हैं जिनमें पंडित भीमसेन जोशी भी शामिल हैं। निश्चित तौर पर सरकार का ये कदम सराहनीय है।