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रागगीरी की कोशिश है कि हम आपके लिए भारतीय शास्त्रीय संगीत की उन खिड़कियों को खोलें जहां से खुशबु आती है। संस्कार आते हैं। आज से इस नई श्रृंखला में हम आपको भारतीय शास्त्रीय संगीत की अलग अलग विधाओं के बारे में बताएंगे। इस श्रृंखला के जरिए आप जानेंगे कि आखिर ध्रुपद संगीत क्या है, ख्याल गायकी क्या है, हवेली संगीत किसे कहते हैं या फिर उप शास्त्रीय गायन क्या होता है? शास्त्रीय संगीत के बारे में ये मिथक बहुत आम है कि ये बहुत कठिन होता है और इसे समझना बहुत जटिल है। जबकि अगर व्यवहारिक तौर पर सोचा जाए तो संगीत के सात स्वरों को ही तो समझना है। इसका थोड़ा सा ‘ग्रामर’ यानी व्याकरण भी अगर समझ आ जाए तो रस में डूबने का मजा ही अलग है। आज सबसे पहले बात करेंगे ध्रुपद गायकी की।

ध्रुपद भारतीय शास्त्रीय संगीत की सबसे पुरानी गायकी है। यूं तो इसकी शुरूआत को लेकर अलग अलग लोग अलग अलग बातें कहते हैं लेकिन सबसे ज्यादा प्रचलित यही है कि इसकी शुरूआत ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने की थी। ये तालबद्ध गायकी की सबसे पुरानी शैली है। ध्रुपद एक गंभीर प्रवृत्ति का गायन है। इसमें राग और ताल का कड़ा अनुशासन होता है। ध्रुपद की उत्पत्ति सामवेद से मानी जाती है। इसमें संस्कृत के श्लोकों को गाने से छंद और प्रबंध निकलते हैं। प्रबंध के चार हिस्से थे- उदयक, मेलापक, ध्रुवपद और आभोग। ध्रुवपद से ही ध्रुपद का नामकरण हुआ है। ध्रुपद गायकी का विकास शाही दरबारों से शुरू होता है। बादशाह अकबर के दरबारी गायक तानसेन अपने समय के सबसे बड़े ध्रुपद गायक माने जाते हैं। 12वीं से 15वीं शताब्दी के बीच ध्रुपद की भाषा संस्कृत से बृज और अवधि की ओर चली गई। इसी दौरान भक्ति के साथ साथ सम्राटों की तारीफ और संगीत का महात्मय भी बंदिशों का विषय बना। ध्रुपद गायन शैली पर ये फिल्म डिवीजन की प्रस्तुति है।

ध्रुपद गायकी की परंपरा को आगे ग्वालियर, आगरा, दरभंगा, विष्णुपुर, बेतिया और डागर घराने ने बढ़ाया। ध्रुपद गायकी की चार शैलियां हैं- गौहरबानी, नौहरबानी, खंडारीबानी और डागरवानी। इसमें से डागरवानी ही अब सबसे ज्यादा प्रचलित है। इस गायकी में कलाकार की आवाज जोरदार होनी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि इस शैली में संगत के लिए पखावज का इस्तेमाल किया जाता है। पखावज की आवाज के आगे गायक की आवाज दब ना जाए इसके लिए दमदार गायकी बहुत जरूरी है। इस गायकी के बारे में प्रचलित कहावत ये भी थी कि ये मर्दाना गायकी है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसे गाने निभाने के लिए गले और फेफड़े का मजबूत होना बहुत जरूरी है। तानसेन के गुरू स्वामी हरिदास, बैजूगोपाल भी ध्रुपद गायकी के महान कलाकारों में हैं।

पारंपरिक गायकी और संरचना पर जोर देने के कारण आज भी ध्रुपद का वही रूप सुनने को मिलता है जो करीब 500 साल पहले शाही दरबारों में होता था। इस गायकी में मींड और गमक की प्रधानता होती है। जिसमें मंद्र स्वरों यानी नीचे के सुरों का महत्व ज्यादा होता है। ध्रुपद गायकी में बंदिश के चार हिस्से होते हैं- स्थाई, अंतरा, आभोग और संचारी। मौजूदा समय में स्थाई और अंतरा ही गाया जाता है। पद्मश्री से सम्मानित कलाकार उस्ताद फैयाज वसीफुद्दीन डागर का एक आलाप देखिए

ध्रुपद गायकी में संगत के वाद्ययंत्रों के तौर पर पखावज और तानपुरे का इस्तेमाल किया जाता है। इस गायकी में चौताल, तीव्रा, सूलफाक्ता, धमार और सादरा प्रमुख तालें हैं। ध्रुपद गायकी में संगीत पक्ष के लिहाज से नाद योग, गमक, मींड, आलाप, लयकारी, आकार, लहक, डगर और स्फूर्ति प्रमुख है। ध्रुपद गायकी सदियों से गुरू शिष्य परंपरा का बेहतरीन उदाहरण है। इस गायकी का लक्ष्य मनोरंजन तक सीमित ना होकर गंभीर आध्यात्मिक शांति का अनुभव कराना है। ध्रुपद गायकी की शुरूआत आलाप से की जाती है। धीरे धीरे मंद्र के स्वरों में इसका विस्तार होता है। इस गायकी में बगैर संगत के ही एक निश्चित लय में स्वरों की लयकारी भी सुनने को मिलती है।

इस गायकी में नोम-तोम का सविस्तार आलाप करते हैं। षडज पर सम दिखाते हुए आलाप को खत्म किया जाता है। ध्रुपद गायक पखावज की संगत के साथ बंदिश में प्रवेश करते हैं। स्थाई के बोलों को एक आवर्तन में गायक अलग अलग लयकारियों का प्रदर्शन किया जाता है। अंतरे का विस्तार भी ऐसे ही किया जाता है। बीते समय में हुए बदलावों का एक असर ये देखने को मिला है कि कुछ मौकों पर ध्रुपद गायक पखावज की बजाए तबले के साथ कार्यक्रम करते हैं। इसके पीछे की एक वजह ये भी है कि पखावज बजाने वाले कलाकार धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं। इस गायकी में द्रुत लयकारियों के साथ षडज पर कलाकार गायकी को खत्म करता है। मौजूदा समय में गुंडेचा ब्रदर्स, फैयाज वसीफुद्दीन डागर, पंडित उदय भावलकर और प्रेम कुमार मल्लिक जैसे कलाकार हैं जो ध्रुपद की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।

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