क्या आप ये मानती हैं कि राजनीति को कला से दूर रहना चाहिए, और अगर आपकी कला पर राजनीति हो या उस पर सवाल उठें तो आप कैसे जवाब देती हैं?
1993 में एक बड़ी घटना घटी। स्वामी विवेकानंद के शिकागो धर्मसभा में जाने की शताब्दी मनाई जा रही थी। अमेरिका के वाशिंगटन में बड़े स्तर पर इस कार्यक्रम का आयोजन होना था। अटल बिहारी वाजपेयी जी ने स्वयं मुझे इसके लिए न्यौता देते हुए कहा था कि मैंने आपका नाम दिया है और आपको वहां जाना है। मैं बड़े उत्साह से वहां जाने के लिए तैयार हो गई। मेरे साथ हरिप्रसाद चौरसिया जी, अनूप जलोटा जी और अनुराधा पौंडवाल जी थे। हम चार कलाकारों को जाना था। वहां शत्रुघ्न सिन्हा जी एंकरिंग करने वाले थे। एक बड़े स्टेडियम में वो कार्यक्रम बड़े स्तर पर किया गया था। लेकिन उसके पहले और बाद में जो हुआ वो जानना बहुत अहम है। जैसे ही ये खबर दिल्ली तक पहुंची एक किस्म का कोहराम मच गया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से लोगों के फोन आने लगे, ‘सहमत’ से लोगों के फोन आने लगे कि ये तो ‘कॉम्यूनल’ है। इन लोगों ने कहाकि आप वहां नहीं जा सकतीं। गुमनाम लोगों ने फोन करने शुरू कर दिए। गुमनाम लोगों की चिट्ठियों में धमकियां मिलने लगीं। कुछ वामपंथी सेक्यूलर कुंठित मानसिकता वाले अखबारियों ने मेरे खिलाफ लिखना शुरू कर दिया। इसके बाद एक रविवार को मावलंकर हॉल में बड़ी सभा का आयोजन हुआ और मुझे दबाव देकर वहां बुलाया गया, क्योंकि मुझे कुछ सवालों का जवाब देने होंगे। सहमत, सीपीआई, सीपीआई (म्), शबाना आजमी, कैफी आजमी, अग्निवेश ये सारे वहां थे। ‘सहमत’ जब शुरू हुआ था तब से मैं उसकी फाउंडर मेंबर थी। जब सफदर हाशमी की हत्या हुई थी उस समय मैंने बहुत कार्यक्रम किए थे। सड़कों पर नाचे। अलीगढ़ के सौ दिन के कर्फ्यू के बाद नाचे। ये एक तरह का राजनीतिक प्रतिशोध के खिलाफ उठाया गया मेरा कदम था। लेकिन इन लोगों ने मेरे खिलाफ जबरदस्त हल्ला शुरू कर दिया। मुझे याद है कि जब मैं वहां काली-पीली टैक्सी से वहां पहुंची तो कुलदीप नैयर मंच पर अकेले अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठे हुए थे। मुझे वहां ऐसे बुलाया गया जैसे मैंने कोई बड़ा अपराध किया हो। मैंने हिंदी में कहाकि हम तो मां के पेट से ‘वैष्णवजन तो तेने कहिए’ गाते हुए पैदा हुए हैं। मेरे दादा जी गांधी जी के साथी थे। आजादी की लडाई में परिवार के लोग कई बार जेल गए थे। मुंबई में मेरे दादा जी के घर ऐसे सारे राजनेता आया करते थे, नेता तो आते ही थे तमाम धर्मगुरू भी आते थे। हमने कभी इस तरह से सोचा ही नहीं। यूं भी स्वामी विवेकानंद ‘कॉम्यूनल’ कैसे हो गए? जवाब मिला कि उस कार्यक्रम का आयोजन विश्व हिंदू परिषद ने किया है। मैंने कहाकि मुझे इससे क्या फर्क पड़ता है कि कार्यक्रम किसने आयोजित किया है। मैं तो कार्यक्रम का मकसद देखती हूं। यूं भी मैं इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाली अकेली कलाकार नहीं हूं, मेरे साथ और भी नामी कलाकार जा रहे हैं। लेकिन मेरी इन सारी बातों को काट दिया गया। स्वामी अग्निवेश ने खड़े होकर पूछा, “क्या आपको हिटलर बुलाता तो आप जातीं?” मैंने कहा, “मैं मूर्ख प्रश्नों का जवाब नहीं देती लेकिन अगर मुझे बुलाया जाता तो मैं जरूर जाती क्योंकि मेरे नृत्य में वो ताकत है कि मैं लोगों को अपनी सोच बदलने पर मजबूर कर सकती हूं। मैं लोगों के ह्दय बदल सकती हूं। मुझे जहां बिना किसी शर्त या एजेंडा से अपने ह्दय से नृत्य करने के लिए ससम्मान बुलाया जाता है वहां मैं जरूर जाती हूं लेकिन जहां मुझे ये कहा जाए कि आपको यही करना है तो मैं नहीं जाती हूं। इतना कहकर मैं बैठने लगी तो पीछे से फिर हल्ला हुआ तो मैंने हंसते हुए कहाकि अगर आपको मेरी हिंदी नहीं समझ आई तो मैं अंग्रेजी में बोल देती हूं। फिर मैंने ये भी कहाकि यूं तो मातृभाषा गुजराती है, उड़िया बोल लेती हूं, संस्कृत बोल लेती हूं…आप कहो तो सभी में अपनी बात दोहरा दूं।
क्या इस तरह के विरोध प्रदर्शन का असर आप पर या आपकी परफोर्मेंस पर पड़ता है?
जब मैं हॉल से निकली तो लगभग दो सौ लोग मेरे पीछे बाहर निकले। सबने मुझे बधाई दी। हर किसी को मेरी बात, मेरे तर्क का मतलब समझ आ रहा था। मैं बहुत गुस्से में थी। मैं वहां से सीधे मधु लिमये जी के घर गई। मधु लिमये जनता दल में महासचिव थे। मैं जैसे ही उनके घर पहुंची तो मधु लिमये समझ गए कि मैं गुस्से से भरी हुई हूं। उन्होंने मुझे बताया कि मेरे आने से ठीक पहले कुलदीप नैयर का फोन आया था। उन्होंने कुलदीप नैयर से पूछा भी कि क्या तुम लोगों को पागल कुत्ते ने काटा है जो सोनल को बेकार में परेशान कर रहे हो। सोनल ने जो किया है बिल्कुल सही किया है मैं उसे बधाई दूंगा। इस घटना के बाद से मेरे ऊपर भगवा होने का ठप्पा लगा दिया गया। उस दौर में मेरे बारे में खूब चर्चा हुई। हद तो तब हो गई जब अमेरिकन दूतावास के बाहर मेरे संगीतकारों को तीन दिन तक खड़े रहे लेकिन उनको वीजा नहीं दिया गया। मेरे पास 5 साल का वीजा था। मैं वहां पूछने गई तो कहा गया कि वीजा देने से इंकार किया गया है। दो दिन बाद हमें निकलना था। मैंने विदेश सचिव मणि दीक्षित को फोन किया। तनाव की वजह से तबियत भी खराब हो गई थी। खांसी जुकाम बुखार सबकुछ। विदेश सचिव ने तुंरत मिलने के लिए बुलाया। उन्होंने एंबेसी में फोन किया। एंबेसडर उस वक्त छुट्टी पर थे। उनके बाद के ऑफिसर से मणि दीक्षित ने पूछा कि आखिर किसने मना किया है, क्योंकि उनके मंत्रालय ने तो मना नहीं किया। तब उन्हें गोपनीयता का हवाला देते हुए बताया गया कि मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुनसिंग ने इन लोगों को वीजा ना देने की हिदायत दी थी। इसके बाद मणि दीक्षित ने मुझे अपना रिकॉर्डेड म्यूजिक लेकर निकलने की सलाह दी और इस मामले में आगे आगे कदम उठाने का भरोसा दिया। भारी मन से मैं गई और ज्यों त्यों बिना मेरे संगीतकारों के कार्यक्रम किया। ईश्वर की कृपा से यद्पि मैं एक ही नृत्यकार थी, मेरी प्रस्तुति को भरपूर प्रशंसा और सराहना मिली। तब से अब तक मेरा नाम कम्यूनल, संघी, राइटिस्ट, भगवा की सूची में शामिल कर दिया गया। जैसे कि एक तरह से मैं ‘ब्लैकलिस्ट’ हो गई लेकिन मेरे लिए भारतीय संस्कृति का महिमामंडन करते रहना ही जीवन का आदर्श है।