पंडित राजन-साजन मिश्र को बचपन से संगीत के अलावा खेलने का बहुत शौक था। वो छोटे हुए क्रिकेट, बैडमिंटन और फुटबॉल खूब खेला करते थे ये वो स्पोर्ट्स हैं जिनमें खूब एनर्जी की जरुरत होती है तो ऐसे में खेलने के बाद क्या उन्हें रियाज करने में परेशानी होती थी क्या कभी इस वजह से उन्हें बचपन में डांट खाने को मिली या फिर उन्हें उनके खेल ने और सश्क्त कलाकार बनाया। रागगिरी से हुई खास मुलाकात में पंडित राजन साजन मिश्र ने अपने बचपन की कई यादें ताज़ा की। ईनाम के लालच में संगीत सिखते सिखते वो महान गायक कैसे बनें और बचपन में जब उनसे संगीत सीखते हुए कोई भूल हो जाती तो सबसे ज्यादा मदद उस समय उनकी कौन करता था। आइए उन्हीं से जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी कुछ खास बातें
बचपन में जब संगीत सीख रहे होते हैं तो ऐसे में कई बार कुछ गलतियां होती हैं तो उन्हें सुधारने में कौन आपकी मदद करता था?
काशी में एक कहावत है कि काशी में कबीर चौरा और कबीरचौरा के कलाकार। तीन ‘क’ का जो मिलन है, वो अपने आप में बड़ा अद्भुत है। हम लोग बड़े भाग्यशाली हैं कि हमारे जो पूर्वज थे वो बहुत बड़े संगीतकार हुए। हमारे खानदान मे सारंगी की परंपरा थी। हमारे दादा पंडित सुर सहाय जी, हमारे दादा के पिता जी पंडित गणेश मिश्रा जी उनके पिता पंडित रामबक्श जी, हमारे पिता जी पंडित हनुमान मिश्रा और चाचा गोपाल मिश्रा, सब के सब संगीत की दुनिया के नायाब नाम रहे हैं। इस खानदान में पैदा होने का जो गौरव हम दोनों भाईयों को मिला उससे जन्म लेते ही हम लोगों के कान में संगीत की स्वर लहरियां सुनने को मिलीं। अच्छी बात ये भी रही कि हमारी मां, चाची, दादी भी संगीत परिवारों से ही थीं। उनके अंदर भी संगीत की समझ थी। ये ठीक है कि उस जमाने में परदा होता था, इसलिए आम तौर पर लड़कियों को सिखाने की परंपरा नहीं थी। लेकिन उस वक्त भी उनके कान इतने सशक्त थे कि जो भी बंदिश पिता जी, चाचा जी या दादा जी सिखा रहे हैं वो उनको भी याद हो जाती थी। हम लोगों को पिता जी बंदिश सिखाते थे, उनका आदेश होता था कि अगले दिन हम भाईयों को उन्हें वो बंदिश सुनानी है। कभी कभार ऐसा होता था कि हम एक दो लाइन भूल गए। अंतरा भूल गए। स्थाई की आधी लाइन भूल गए। तो हमारी मां, बडी बहन या चाची जी में से कोई ना कोई उसको याद दिला देता था और हम लोग डांट खाने से बच जाते थे।
हमने सुना है कि बचपन में आपको ईनाम का लालच देकर कई बार अलग-अलग तरह से संगीत सिखाया जाता था तो वो किस्सा क्या है?
हमारे पिता जी हमारे गुरू भी थे। संगीत के मामले में सख्त थे। वैसे बहुत सरल थे। छुट्टी के दिन वो हम लोगों को छुटपुट खरीदारी के लिए बाहर ले जाते थे। गली से रोड तक जाने में वो बोलते थे कि बाजार तक आने जाने में एक टप्पा सीख लो। एक बंदिश सीख लो। फिर वो बंदिश उन्हें सुनानी होती थी। सबकुछ सही रहा तो ईनाम मिलता था। यहां तक कि बाल कटवाने के लिए जाते वक्त भी शर्त होती थी कि अगर ये टप्पा सीख गए तो ईनाम मिलेगा। ईनाम के चक्कर में हम लोग ‘हाई अलर्ट’ होकर पूरी एकाग्रता से काम करते थे। बाजार तक आने जाने में टप्पा याद करना और एक रूपये का ईनाम लेना हम भाईयों का लक्ष्य होता था। फिर हम दोनों भाई उस एक रुपये के खर्च की प्लानिंग भी शुरू करते थे। एक रुपये में क्या क्या करना है, दुकान से चार बिस्किट लेंगे, एक आने में चार बिस्किट मिल जाएंगे। फिर दो आने का पतंग लेंगे। धागा लेंगे, उसकी चकरी लेंगे। मतलब एक रुपये का प्लान टप्पा या बंदिश सिखने के दौरान ही बन जाता था।
आप बचपन में खूब खेला करते थे तो क्या आप मानते हैं कि खेलने से सुर मजबूत होते हैं?
हम लोगों के यहां एक वातावरण ये भी था कि अक्सर घर में सामना होने पर पिता जी पूछते थे कि दिन में कितनी बार खाना खाया? हम लोग जोड़ जाड़ कर बताते थे कि सुबह का नाश्ता, दिन का खाना और रात का डिनर। शाम को भी कभी कभार हम लोग रोटी आम खा लेते थे स्नैक्स के तौर पर। तो मतलब कुल मिलाकर 4 बार खाना खाया। फिर पिता जी पूछते थे कि गाना कितनी बार गाया- हम लोग बोलते थे कि दो बार। तब पिता जी पूछते थे कि क्या ये ठीक है, क्या तुम लोगों की आत्मा बोल रही है कि खाना खाओ 4 बार और गाना गाओ सिर्फ 2 बार। कम से कम तीन बार तो गाओ। कुछ तो शर्म करो। पिता जी अपने रियाज के बारे में याद करते बताते थे कि हमारे दादा उन्हें चार बजे उठाते थे, दादा जी कहते थे कि काशी स्नान के लिए सभी देवी देवता ऊपर से आ रहे हैं। गाओगे बजाओगे सुर लगेगा, किसी देवता ने सुन लिया तो शायद खुश होकर गले में या साज में सुर दे देंगे। उसी अनुशासन में हम लोग भी पले बढ़े हैं। जो संस्कार पिता जी से मिला, उसका फायदा ये हुआ कि हम दोनो भाई बचपन से ही बहुत जागरूक थे। संगीत के अलावा पिता जी कभी खेलने कूदने के लिए भी नहीं रोकते थे। हम दोनों भाईयों को क्रिकेट खेलने का बहुत शौक था। हम दोनों भाई डीएवी डिग्री कालेज की टीम के कप्तान भी रहे। अच्छे लेवल तक क्रिकेट खेले, बैडमिंटन खेले, फुटबॉल खेले। पिता जी कहते थे कि मिट्टी में जितना खेलोगे उतना मजबूत होगे। उसी का नतीजा है कि आज हम लोगों के भीतर एक ‘एनर्जी’ है। पिता जी की एक और खासियत थी, कभी कभार ऐसा होता था कि उनके उलाहने को सुन सुनकर हम लोग गुस्से में रियाज करने बैठ जाते थे। 3-4 घंटे रियाज चलता था। गला गर्म हो जाता था, गाने का मजा भी आने लगता था। तब पिता जी आकर रियाज रूकवा देते थे। कहते थे कि ये मजदूरी नहीं है कि 5-8 घंटे की ड्यूटी पर आए हैं। रियाज को ‘ड्यूटी’ मत बनाओ, उसको ‘इन्जॉय’ करो। आज वो हमारे साथ नहीं हैं, लेकिन उनकी हर बात याद आती है। हम दोनों भाई अब भी अक्सर काशी चले जाते हैं। जिससे हमारी ‘एनर्जी’ बनी रहे और हमारी बैटरी ‘रिचार्ज’ होती रहे।