आप अपने जीवन में संगीत का श्रेय अपनी माता जी को देते हैं, तो उनका किस तरह का योगदान रहा आपकी कामयाबी में
पंडित रवि शंकर जी से मेरा रिश्ता करीबी था। वो बहुत प्यार करते थे। मुझे याद है कि गुरू जी के जाने के बाद एक बार दिल्ली में उनके सेंटर पर उनकी याद में एक कार्यक्रम था। उस कार्यक्रम में मुझे भी बजाना था। मैंने बजाना शुरू किया। थोड़ी ही देर में उनकी यादें ऐसी मन भरने लगीं कि साज बजाते बजाते ही मेरी आंखों में आंसू आ गए। सुकन्या शंकर जी भी वहां मौजूद थीं। मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है। मुझे याद है कि 2005 में मां के जाने के बाद जब मैंने दोबारा कार्यक्रम करना शुरू किया तो मुझे अक्सर रोना जरूर आता था। कुछ साल तक ऐसा चलता रहा। अब भी कभी कभी ऐसा हो जाता है कि आंख भर आती है। दरअसल मैं आज जो कुछ हूं उसमें मां का बड़ा रोल है। मां के बारे में बता दूं कि मां बाद में संगीत की लेक्चरर बन गई थीं। उस दौर में लड़कियों के लिए संगीत कोई विषय नहीं था। लेकिन मां ने लेक्चरर बनने के बाद इस दिशा में बहुत मेहनत की और संगीत को ‘ऑप्शनल’ विषय के तौर पर जोड़ा गया। उस वक्त तक पूरे राजस्थान में संगीत की कोई ‘क्वालीफाइड टीचर’ नहीं थी। मेरी मां राजस्थान की पहली ऐसी टीचर थीं। इसके बाद तो लड़कियां जब बड़ी क्लास में पहुंची तो उन्होंने मांग कर दी कि उनके लिए ‘वोकल’ और सितार की क्लास शुरू की जाए। बाद में कॉलेज और विश्वविद्यालय को लड़कियों की बात माननी पड़ी और संगीत को एक विषय के तौर पर पाठ्यक्रम में शामिल करना पड़ा। इसका काफी श्रेय मेरी मां को जाता है।
आपको ग्रैमी अवार्ड कैसे मिला ये आगे आपसे जानेंगे लेकिन उससे पहले आपकी पत्नी से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा है उसके बारे में दर्शकों को बताइए
जीवन संगीत यात्रा में गुजर रहा था। इसी बीच मेरी शादी भी हुई। उसका किस्सा भी दिलचस्प है। हुआ यूं कि हमारे यहां तो पूरे परिवार में संगीत ही था। मेरी पत्नी भी हमारे यहां संगीत सीखने ही आती थीं। संगीत सीखते सीखते हम दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे। कुछ समय बाद हम लोगों ने तय किया कि अब शादी के लिए मां-बाप से बात करनी चाहिए। मैंने अपने माता पिता जी से बात की। उन्हें तो लड़की पसंद थी इसलिए उन्होंने हामी भर दी। परेशानी ये थी कि उस वक्त मैं कमाता नहीं था इसलिए लड़की के घरवालों ने आपत्ति की। उन्हें लगता था कि गा बजाकर मैं क्या कमा लूंगा, कितना कमा लूंगा। उन लोगों की सोच ऐसी ही थी लेकिन बाद में वो लोग भी मान गए। बाद में जब मेरा नाम हो गया तो उन्हें लगाकि वो लोग भी कहां शक कर रहे थे। नाम भी हुआ तो ऐसा कि लगा ऊपर वाले की कुछ ज्यादा ही मेहरबानी है। 1994 का साल था जब ‘वो’ खास दिन मेरी जिंदगी में आया। मैं एक कार्यक्रम करने के लिए अहमदाबाद गया हुआ था। उन दिनों मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे। मैं बैठा हुआ था तो लैंडलाइन पर फोन आया। दरअसल फोन आने की भी कहानी है। वो फोन पहले जयपुर गया था। वहां मेरी पत्नी ने बताया कि मैं अहमदाबाद में हूं और एक नंबर दिया जिससे अहमदाबाद में मुझसे बात हो सकती थी। इस तरह अहमदाबाद में मेरे पास फोन आया।
आपको कैसे पता चला की आपको ग्रैमी अवार्ड मिलने वाला है?
फोन लाइन पर हमारी रिकॉर्डिंग के प्रोड्यूसर मिस्टर एलेक्जेंडर थे। उन्होंने कहा- ‘डू यू वान्ट टू नो ए गुड न्यूज’ यानि क्या आप एक अच्छी खबर सुनना चाहेंगे, मैंने कहा- ‘हां-हां जरूर सुनाइए’। तब तक मैंने सोचा तक नहीं था कि वो रिकॉर्डिंग कहां जाएगी, इसका क्या होगा। कोई भी कलाकार किसी रिकॉर्डिंग के वक्त ऐसा नहीं सोचता कि उसे उसके लिए क्या मिलेगा और क्या नहीं। मैं यही सारी बातें सोच रहा था जब मिस्टर एलेक्जेंडर ने कहा कि ‘योर एल्बम इस नॉमिनेटेड फॉर ग्रैमी’ यानि तुम्हारा एल्बम ‘ग्रैमी’ के लिए ‘नॉमिनेट’ हुआ है। मैं तो उछल गया। मेरी बहनें उस वक्त मेरे साथ थीं। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। उन्होंने फटाफट जयपुर फोन करके खबर दी। वहां भी सबलोग झूम गए। बड़े भाई बहुत खुश हुए। पत्नी और मेरे दोनों बच्चे सलिल और सौरभ भी बहुत खुश थे। असल में मेरे बच्चों को पता था कि ‘ग्रैमी अवॉर्ड’ की अहमियत क्या है। वो तो माइकल जैक्सन और दूसरे विदेशी कलाकारों को ही मिला करता था। उस दिन मुझे पिता जी की बहुत याद आई। उस पल वो होते तो कितने खुश होते। ग्रैमी अवॉर्ड फरवरी के आखिर में होता है लेकिन उसका एलान दिसंबर के आखिर में हो जाता है।
आपको जिस धुन के लिए ग्रैमी अवार्ड से सम्मानित किया गया उसके बारे में कुछ बताइए
जिस धुन पर मुझे ‘ग्रैमी अवॉर्ड’ मिला उसकी सबसे बड़ी खासियत ये थी कि वो ‘नैचुरल’ थी। असल आम तौर पर ‘प्रॉसेस’ ये होता है कि एक संगीतकार पहले एक ‘कॉम्पोजीशन’ तैयार करता है। उसको लिखता है याद करता है और फिर बजाता है। मैंने ऐसा नहीं किया था। मुझे हमेशा से लगता है कि भारतीय संगीत का जो एक ‘फीचर’ है जो बहुत रोचक है वो है इसकी तात्कालिकता। इसमें ‘क्रिएटिवटी’ बहुत मायने रखती है। आप जब ‘परफॉर्म’ करते हैं तो आपकी सोच आपकी ‘क्रिएटिवटी’ के साथ साथ चलती रहती है। तब आप नया संगीत रच पाते हैं। अगर आप लिख कर याद कर बजाएंगे तो उसमें एक ठहराव सा आ जाता है। ये फर्क वैसा ही है जैसे ठहरा हुआ पानी और बहता हुआ पानी। संगीत को भी बांधना नहीं चाहिए ये बहते हुए पानी की तरह ही हो तो अच्छा है। उस रिकॉर्डिंग में जो मेरे ‘पार्टनर’ थे मैंने उनसे कह दिया था कि मैं अपना हिस्सा बजाऊंगा, लेकिन क्या बजाऊंगा मुझे भी नहीं पता आप अपने हिस्से की तैयारी कर लें। आप लिखना चाहें या जैसे भी अपना हिस्सा बजाना चाहें जब आप तैयार हों तो हम एक बार ‘रिहर्सल’ कर लेंगे। जब वो तैयार हो गए तो हमने पांच मिनट का एक ‘रिहर्सल’ किया। इसके बाद मैंने कहाकि मैं तैयार हूं। वो चौंक गए उन्होंने कहा इतनी जल्दी। मैं मुस्करा दिया। उसके बाद हम लोग रिकॉर्डिंग के लिए चले गए थे।