मशहूर संतूर वादक पंडित शिव कुमार शर्मा के बारे में उनके लाखों करोड़ों फैंस उनकी निजी जिंदगी से जुड़ी कई खास बातें जानना चाहते हैं। रागगिरी को दिए खास इंटरव्यू में पंडित शिव कुमार शर्मा ने अपने बचपन से लेकर अपने पहले स्टेज परफोर्मेंस तक कई बातें शेयर की। उनके पिता पंडित उमादत्त शर्मा उनके गुरु भी थे और फिर आगे उन्होंने कैसे कैसे संगीत की तालीम ली संतूर वादक का सफर कैसे शुरु हुआ और उन्होंने संगीत को गंभीरता से लेना कब और कैसे शुरु किया आज इस इंटरव्यू में वो इन सब सवालों के जवाब देंगे। साथ ही बचपन में पंडित शिव कुमार शर्मा जी कितने शैतान थे और क्या कभी शैतानियों की वजह से उनके पिता जी से उन्हें कभी मार खानी पड़ी आइए सब जानते हैं।
हमने पंडित शिव कुमार शर्मा से पूछा कि आपकी संगीत की तालीम कैसे शुरु हुई?
मेरी पैदाइश जम्मू की है। मेरे पिता पंडित उमादत्त शर्मा जी मेरे गुरू भी थे। पिताजी अलग-अलग कलाओं को जानने वाले बड़े काबिल कलाकार थे। उन्होंने बनारस के पंडित बड़े रामदास जी से गाना सीखा था। पंडित बड़े रामदास जी बनारस घराने के अद्वितीय कलाकार थे। इससे पहले उन्होंने जम्मू में सरदार हरनाम सिंह से तबला भी सीखा था। सरदार हरनाम सिंह, दतिया रियासत के कुदऊ सिंह महाराज जो बहुत महान पखावज वादक थे के शिष्य थे। हमारे जम्मू कश्मीर में शास्त्रीय संगीत का अपना कोई घराना नहीं है। ना जम्मू में, ना कश्मीर में। इस वजह से मेरे पिता जी ने हरनाम सिंह जी से तबला सीखने की तलाश में बनारस का रूख किया। ये वो दौर था जब पाकिस्तान नहीं बना था। बंटवारे से पहले लाहौर संगीत का गढ़ हुआ करता था। उस जमाने में टेलीविजन नहीं था। लाहौर रेडियो से उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, अब्दुल वहीद खान साहब, पंडित गिरीश चंद्र जी वहां से ब्रॉडकास्ट करते थे। मेरे पिता जी भी उसी समय एक शास्त्रीय गायक के तौर पर ब्रॉडकॉस्ट किया करते थे। जाहिर है संगीत मेरे परिवार का अभिन्न हिस्सा था। हमारी परंपरा में शुमार था। जब मैं पांच साल का था तब गायन और तबले की मेरी शिक्षा मेरे पिताजी के पास ही शुरू हुई थी। शुरूआत गायन से जरूर हुई थी लेकिन मेरा मन धीरे धीरे तबला बजाने में ज्यादा लगने लगा था। करीब 7-8 साल की उम्र रही होगी जब मैं रेडियो से बच्चों के कार्यक्रम में तबला बजाना शुरू कर दिया था।
संतूर सीखने की शुरुआत कब और कैसे हुई?
जब मैं 11-12 साल का था तब मेरे पिताजी ने एक दिन मुझसे कहाकि वो मुझे संतूर सीखाना चाहते हैं। एक बार तो मैंने सोचा कि गायन और तबला तो सीख ही रहा हूं फिर एक बिल्कुल नया वाद्ययंत्र क्यों? लेकिन फिर गायकी और तबला की जानकारी होने की वजह से संतूर को बजाने में मुझे अच्छा लगा। इस तरह मेरे पिताजी ने मुझे संतूर सिखाना शुरू किया। उस वक्त तक संतूर बजाना तो दूर की बात है वादिए कश्मीर के बाहर जम्मू में कभी भी किसी ने संतूर को देखा और सुना भी नहीं था। कश्मीर में जो संतूर बजाया जाता था वो सूफियाना मौसिकी में इस्तेमाल किया जाता था। मोहम्मद अब्दुल्ला कालीन और कालीन बफ नाम के दो कलाकार थे जो संतूर बजाया करते थे। उस समय तक संतूर पर शास्त्रीय संगीत किसी ने नहीं बजाया था। ये पहल मेरे पिताजी ने की। सबसे पहले मेरे पिताजी ने सोचा कि संतूर पर शास्त्रीय संगीत बजाना चाहिए। ये आसान काम नहीं था। शास्त्रीय संगीत में संतूर का किस तरह का ‘सिस्टम’ बनाया जा सकता है, कैसे उसे बजाया जा सकता है, स्वरों को कैसे मिलाना चाहिए, कलम को कैसे बजाना चाहिए, रागदारी कैसे होनी चाहिए? इन सारे सवालों का जवाब पिताजी ने ढूंढाय़। इस तरह संतूर की मेरी तालीम शुरू हुई। यानी करीब 12 साल की उम्र तक आते आते पहले गाना, फिर तबला और आखिर में संतूर की बारी थी। संतूर अपनी तरह का एकदम अलग ही साज था।
आप बचपन की कुछ शैतानियों के बारे में बताइए या फिर आप बहुत ही सीधे बच्चे थे?
संगीत सीखने से अलग बचपन में वैसे तो मैं शैतान बच्चों में से नहीं था। लेकिन मैं पढ़ाई में ज्यादा अच्छा भी नहीं था। खासतौर पर गणित में। हमारे जो गणित के टीचर थे वो मुझे छड़ी से पिटते थे मेरी हथेलियों पर। गणित में ज्यादातर हमारा ‘सिफर’ ही आता था। वहां काफी पिटाई हुई है। ऐसे ही एक बार बच्चों के साथ होली में अपनी शैतानी का एक किस्सा याद है। होली में यूं भी शैतानियां होती हैं। हुड़दंग होती है। हमारे साथ वाले घर में वजीर साहब रहते थे। उन दिनों महाराजा का जमाना था। वजीर साहब की बेटी को पढ़ाने के लिए एक प्रोफेसर साहब आते थे। होली वाले दिन वो बड़ा सजधज और बनठन कर उनकी बेटी को पढ़ाने आए थे और हम लोगों ने छत के ऊपर से उनके ऊपर रंग डाल दिया था। रंग भी ऐसा वैसा नहीं, बस यूं समझिए कि उनके लिए अपनी ही शक्ल पहचानना मुश्किल हो गया। इन बदमाशियों के बावजूद पिताजी से तो कभी कान खिंचाई कभी नहीं हुई क्योंकि वो जो सिखाते थे वो मैं भगवान के आशीर्वाद से जल्दी ही सीख जाता था। दूसरे उस जमाने की जो तालीम थी पिताजी मुझे लिखने नहीं देते थे। रिकॉर्डर तो उस वक्त होते भी नहीं थे। ऐसा नहीं था कि कॉपी पेंसिल लेकर बैठ गए, तानें लिख लीं और बाद में उनकी प्रैक्टिस कर ली। पिताजी इसकी इजाजत बिल्कुल नहीं देते थे। वो कहते थे याद रखो। इस तरह मेरा ज्यादातर बचपन संगीत सीखने और रियाज करने में गुजरा है। थोड़ा बहुत खेला भी तो वापस आकर रियाज करने बैठ जाते थे।
आपका पहला स्टेज परफोर्मेंस कब और कहां हुआ और आपको ये मौका कैसे मिला?
मैंने अपने शुरूआती दिनों के कार्यक्रम में ही एक बड़ा प्रयोग कर डाला। 1955 का साल था। मेरी उम्र सिर्फ 17 साल थी। मुंबई में हरिदास संगीत सम्मेलन का आयोजन हो रहा था। बृजनारायण जी उस कार्यक्रम का आयोजन किया करते थे और वो देश का बहुत बड़ा और प्रतिष्ठित संगीत कार्यक्रम था। देश के जितने बड़े कलाकार थे वो सब वहां अपनी प्रस्तुति दिया करते थे। वो चाहें गायक हो, वादक हो या नृत्य से जुड़े हों। मैं वहां पहुंचा कैसे ये भी किस्सा दिलचस्प है। डॉ. कर्ण सिंह मेरे पिता जी के शिष्य हैं। उन्होंने 10-12 साल तक मेरे पिताजी से गायन सीखा है। वो मुंबई आए थे। महाराज हरिसिंह वहां थे। वहीं डॉ. कर्ण सिंह से बृजनारायण दास जी ने कहाकि आप इतना अच्छा संगीत सम्मेलन कराते हैं मैं आपको एक ऐसे कलाकार के बारे में बताता हूं जो अनोखा साज बजाता है। उस साज के बारे में आपने कभी नहीं सुना होगा। बृजनारायण जी ने ये बात सुनकर ही मुझे उस कार्यक्रम में बुलाने का फैसला किया। उन दिनों मैं तबला और संतूर दोनों बजाता था और मुझमें परिपक्वता भी नहीं थी। मैंने इतने बड़े कार्यक्रम में आयोजकों के सामने एक अनोखी शर्त रख दी।