संगीत आपको विरासत में मिला है, कितनी पीढ़ियों से आपका परिवार संगीत से जुड़ा हुआ है?
मैं खुद को बहुत खुशनसीब मानता हूं कि मेरा जन्म रागियों के परिवार में हुआ। जहां लोग कई पीढ़ियों से गाना गाते चले आ रहे थे। मेरे नाना की तरफ से तो अठारह पीढ़ियां संगीत से ही जुड़ी हुई हैं। मेरे नाना के जो पिता जी थे उनका नाम था मौला। उनके नाम से जालंधर में एक बहुत बड़ा शहर जैसा गांव है। उसका नाम है रूडकी। उसके साथ ही रूडका पिंड है। वो इतना अच्छा गाते थे, इतने मशहूर थे कि उनके नाम से लोग उस गांव को पुकारते थे मौले दी रूड़की। आज भी उस गांव में लोग उन्हें याद करते हैं। ऐसे ही एक और गांव है बैनापुर जो नूरमहल के पास है। जहां सब लोग हमारे नाना को जानते थे। हमारी जो नानी थीं उनके पिता के नाम से भी उनके गांव की पहचान थी। हमारे परिवार के एक बुजुर्ग सिक्खों के छठे गुरू गुरू हरगोविंद सिंह साहब की फौज में भी थे। फौज के बाकि कामों के साथ साथ वो गाते भी बहुत अच्छा थे। यानि मैं किसी भी तरफ से बात करू चाहे अपने दादा की तरफ से या अपने नाना की तरफ से हर तरफ संगीत ही संगीत था। वो भी ‘प्योर’ संगीत। असल संगीत। जिसमें आजकल की तरह नहीं बल्कि राग, गाथाएं, वीर गाथाएं और धार्मिक बातें होती थीं। कबीर जी की बात हो रही है। गुरूनानक की बात हो रही है। वो अच्छे सुर और अच्छे बोल वाला संगीत था। मेरी दादी के पिता भी बहुत अच्छा गाना गाते थे। वो अच्छी एक्टिंग भी करते थे। लिहाजा संगीत हमारे खून में हमें मिला है। मैं इस बात के लिए ऊपरवाले का बहुत शुक्रगुजार हूं। उन्होंने मुझे दुनिया में भेजा तो ऐसे परिवार में भेजा जहां संगीत की विरासत थी। मुझे बचपन से अच्छे बोल वाला संगीत सुनने को मिला।
संगीत आपके खानदान में पीढ़ियों से है लेकिन क्या जब देश का बंटवारा हुआ उसके बाद आपके परिवार में संगीत की वजह क्या बदलाव आए?
मैंने सुना है कि बंटवारे के पहले परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। आदमपुर के मुकुंदपुर गांव में हमारे एक बुजुर्ग रहा करते थे। हमने कथाएं सुनी हैं कि उनके घर में बेतहाशा पैसा था। सब कुछ गायकी की बदौलत। उनके बारे में हमारे घरवाले ऐसा बताया करते थे कि एक बार किसी बात पर कुछ ठन गई। जिसके बाद उन्होंने खेतों में जो क्यारियां बनाई जाती हैं पानी छोड़ने के लिए वैसी साफ क्यारियां बनवाईं और उसमें एक पाइप लगाकर गांव के दूसरे घर तक देसी घी भेजा। ये उनकी जिद थी कि मैं अपने घर से तुम्हारे घर के लिए घी भेजूंगा। कहते हैं कि वो बहुत ही कमाल का गाते थे। उनके बेटे हुए भुक्कल शाह, उनके बेटे हुए लालू शाह, इसमें हमारे परदादा की पीढ़ी आती है। ऐसे ही भाई शेरू जो मेरी नानी के पिता थे। उनके बारे में कहते हैं कि जब वो गाना गाकर आते थे तो उनके यहां पैसे गिने नहीं जाते थे बल्कि तराजू पर तौले जाते थे। उस जमाने में उनके घर में चौबारा बना हुआ था। उस जमाने में ‘डबल स्टोरी’ घर होना, बड़े बड़े दरवाजे होना ये बहुत बड़ी बात है। लेकिन ये सारी कहानी 1947 के पहले की है। 1947 में बंटवारे के बाद हमारे दादा और पिता जी को रूपये पैसे की किल्लतों का सामना भी करना पड़ा। बावजूद इसके हमारा आम का एक बाग हुआ करता था। हमारे दादा ने जितने आम के पेड़ लगाए हुए थे जो सब हमारे खानदान के बच्चों के नाम पर ही थे। यानि बंटवारे के बाद भी ऐसी कोई बहुत बड़ी परेशानी नहीं देखनी पड़ी। गुरू की कृपा थी कि हम गुरूनानक को मानने वाले लोग हैं। ये उनकी कृपा है कि हमें कोई दिक्कत नहीं हुई। गुरूनानक की कृपा से हमें कभी भूखे पेट नहीं सोना पड़ा। मैं भी हमेशा से यही मानता हूं कि जो गुरूनानक के गीत गाते हैं उन्हें कभी गरीबी नहीं देखनी पड़ती है। उनका खान पान सब बहुत अच्छा रहता है। गुरू की कृपा देखिए कि जो सिक्ख नहीं भी हैं और गुरूबानी गाते हैं उन्हें भी वहां पूरी इज्जत से लंगर मिलता है।
आपने किस उम्र में संगीत सीखना शुरु किया?
खैर, जब मैं करीब पांच साल का था तब मेरे पिता जी ने सबद सिखाने शुरू कर दिए थे। उन्होंने मुझे उसी उम्र में तीन सबद सिखाए और साथ के साथ लोगों के सामने गवा भी दिए। ऐसी ही ट्रेनिंग उन्होंने परिवार के बाकि बच्चों को भी दी थी। किसी ने गाना सीखा तो किसी ने तबला बजाना। इस बात के लिए मैं अपने माता पिता का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने घर के साथ साथ बाहर के गुरूओं से भी हमें संगीत सिखने का मौका दिया। मतलब उस उम्र में घर में अलग से म्यूजिक की क्लास भी होती थी। मैंने संगीत को लेकर पिताजी को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। इसीलिए उन्होंने कभी कोई डांट फटकार नहीं लगाई। मेरे पिता उस्ताद अजमेर सिंह खुद भी बहुत मंझे हुए कलाकार थे। उन्होंने शास्त्रीय संगीत में प्रभाकर किया था। हमारे बुजुर्गों में ये खास बात रही कि उन्हें सिर्फ ‘प्रैक्टिकल’ यानि यूं समझिए कि सिर्फ गायकी की जानकारी नहीं थी बल्कि गायकी का जो ‘थ्योरी’ पार्ट होता है वो भी हमारे बुजुर्गों को बहुत अच्छी तरह आता था। क्या राग है, किस समय पर गाते हैं जैसी जानकारी हमारे बुजुर्गों को अच्छी तरह मालूम थी। मेरे पिताजी ने भी इन बातों को अच्छी तरह पढ़ा था। वो पंजाब के गुरूद्वारा अनंतपुर साहिब में कीर्तन किया करते थे। 1960 के आस पास उन्होंने वहां ज्वाइन किया था। जहां गुरूगोविंद सिंह साहब ने सिक्खों को बनाया। खालसा पंथ को बनाया। वहां से उन्हें फतेहगढ़ साहिब जाने का मौका मिला। वहां भी उन्होंने एक साल तक गाया। एक तख्त से दूसरे तख्त पर रागियों को भेजा जाता था। इसी तरह उन्हें फिर बिहार भेजा गया। इसके बाद हमारा परिवार पंजाब से बिहार पहुंच गया।