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पंडित छन्नूलाल मिश्र जब पैदा हुए तब उनका नाम मोहनलाल मिश्रा रखा गया था लेकिन फिर उनका नाम क्यों बदला और मोहनलाल से छन्नूलाल बनने के पीछे की कहानी क्या है ये आज हम उन्हीं से जानेंगे। उनके पिता का बस एक ही सपना था कि उनका बेटा बड़ा होकर उनका खूब नाम करे तो मां अपने बेटे को बचपन में हारमोनियम पर रमायण और सुंदरकांड का पाठ सिखाती थी। बचपन में ऐसे संगीत की शुरुआत तो उनके घर से ही हुई लेकिन फिर कैसे वो अपने उस्ताद से मिले और उनसे सीखकर उन्होंने अपने पिता का नाम रोशन किया ये खास बातें पंडित छन्नूलाल मिश्र ने रागगिरी के साथ शेयर की।

संगीत के प्रति आपका लगाव कैसे शुरु हुआ और शुरुआत में आपको कहां और किनसे तालीम मिली?

मेरा जन्म आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के हरिहरपुर गांव में हुआ था। हमारी पैदाइश 1936 की है। हरिहरपुर उस इलाके का जाना माना गांव है। हमारे पिता जी का नाम बद्री प्रसाद मिश्रा था। पैदाइश के बाद हमारा नाम रखा गया मोहन लाल मिश्रा। हमको संगीत की शुरूआती शिक्षा दीक्षा भी हमारे पिता जी से ही मिली। पिता जी भी तबला बजाते थे इसलिए घर में संगीत का माहौल था। मुझे याद है कि हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। पिता जी जो थोड़ा बहुत कमाते थे, उसी से जो रूखा सूखा मिलता था हम लोग खा लेते थे। बचपन में हमारे घर में मोटा अनाज बनता था, हम लोग वही खाते थे। हालांकि संयोग देखिए कि आज के मुकाबले में अगर तुलना की जाए तो स्वाद उसी खाने का अच्छा लगता था। आज के दौर में खाने पीने से लेकर हर चीज में चमक दमक बहुत है, लेकिन उनका असली रंग फीका ही है। खैर, तो इन सारी आर्थिक चुनौतियों के बाद भी हमारे पिता जी हमको बहुत प्यार करते थे। बचपन से ही वो कहा करते थे कि तुमको बड़े होकर हमारा नाम करना है। खूब सारा नाम, इतना नाम कि हर कोई जान जाए कि हम लोग कौन हैं। इसी वजह से हम पर उनकी खूब निगरानी भी रहती थी। मेरे संगीत को लेकर भी अक्सर वो पूछताछ किया करते थे। पिता जी सुबह सुबह उठाते थे, घर में एक छोटा सा हारमोनियम था, उसी पर वो हमको रियाज कराते थे। मेरी मां रामायण और सुंदर कांड का पाठ कराती थीं। संगीत को लेकर किसी भी तरह की लापरवाही उनको बर्दाश्त नहीं थी, जाने क्यों उनके दिमाग में हमेशा यही बात रहती थी कि बड़े होकर मुझे परिवार का खूब नाम करना है।

बचपन में एक बार शरारत की वजह से आपके पिता ने आपकी पिटाई की लेकिन फिर उस पिटाई के बाद ऐसा क्या हुआ कि आपने अपना जीवन संगीत को ही समर्पित कर दिया?

आज मेरी संगीत में जो साहित्य है वो बचपन में पिता जी और माता जी की उसी मेहनत का नतीजा है। वैसे तो मैं बचपने में ज्यादा शरारती नहीं था। लेकिन एक किस्सा मुझे याद है कि एक बार हम कुछ बच्चे लोग गांव के एक तालाब के पास से कहीं जा रहे थे। गर्मी के दिन थे। मेरे साथ के लड़के तालाब में कूद गए और तैरना शुरू कर दिया। गर्मी थी ही, हमको भी पानी में कूदने का मन कर गया। गांव में तैरना ज्यादातर बच्चों को आता है, हमें भी आता था। हम पानी में तो कूद गए। पानी में मौज मस्ती भी कर ली, लेकिन पीछे से हमारे तालाब में तैरने की खबर पिता जी तक पहुंच गई। पिता जी आए और उन्होंने हमारी पिटाई कर दी। हमको लगा कि तालाब में तो इतने बच्चे तैर रहे थे, लेकिन पिटाई हमारी ही क्यों हुई। लेकिन बाद में जब पिता जी ने कहाकि अभी तालाब में डूब जाते तो बड़े होकर नाम कैसे करते। तब समझ आया कि पिटाई क्यों हुई थी। फिर हम भी संगीत को लेकर जबरदस्त संजीदा हो गए। पिता जी का ज्ञान और मां के जरिए पंरपरा और संस्कार, हमने संगीत की बारीकियों पर खूब मेहनत की। हमारी उम्र करीब 8-9 साल की रही होगी, जब पिता जी तबादला मुजफ्फरपुर हो गया। हमारा परिवार वहां चला गया। वहां हमारे पिता जी ने किराए का घर लिया और एक नए शहर, नए माहौल में हम रहने लगे। वहां हमारे पिता जी हमको किराना घराने के कलाकार अब्दुल गनी खान के पास ले गए। पिता जी ने उनसे गुजारिश की कि वो मुझे शास्त्रीय संगीत गायकी का विधिवत प्रक्षिक्षण दें। खान साहेब मान तो गए लेकिन असल में उनसे संगीत सिखने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी। हम अपने घर से चिलचिलाती झुलसा देने वाली गर्मी में उनके यहां संगीत सिखने जाते थे। वहां पहुंचने पर उस्ताद जी कहते थे जाओ जाकर खाना बनाने के लिए लकड़ी ले आओ। हम वापस उसी जबरदस्त गर्मी में जाते थे उनके लिए लकड़ी लेकर आते थे। कंधे पर लकड़ी लादकर पहुंचे तो उस्ताद जी बड़े अनमने भाव से लकड़ी देखकर कहते थे कि ये तो गीली लकड़ियां हैं, इन्हें कैसे जलाया जाएगा। इतना कहने का मतलब ही यही होता था कि दोबारा जाकर लकड़ियां ले आई जाएं। इतनी मेहनत करके पसीने पसीने होकर हम उनके घर पहुंचते थे। एक दिन गुरू मां ने खां साहेब से पूछ ही लिया कि इस लड़के को इतना परेशान क्यों करते हो, उस्ताद जी तुरंत जवाब दिया कि मैं संगीत सिखने की उसकी लगन को परखना चाहता हूं। गुरू मां मुझे बहुत प्यार करती थीं, लेकिन वो भी चुप हो गई। मैंने हार नहीं मानी और एक रोज उस्ताद जी के इम्तिहान में पास हुआ, इसके बाद जाकर उन्होंने मुझे संगीत की विधिवत शिक्षा देना शुरू किया। मेरा नाम छन्नू भी गुरू मां ने ही रखा। दरअसल उस जमाने में बच्चों की लंबी उम्र के लिए उनके इसी तरह के नाम रखे जाते थे। घोरू, पतवारू…बड़े मजाकिया नाम होते थे, उसका मकसद होता था कि बच्चे को बुरी नजर से बचाया जा सके। हमारे नाम का तो खैर मतलब ये था कि जो शरीर में 6 तरह के विकार से मुक्त हो, उसका नाम है छन्नू। इसीलिए हम मोहन लाल मिश्रा की बजाए इसी नाम के साथ पले बढ़े।

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