आपको बचपन में तबला बजाना ज्यादा पसंद था तो फिर सरोद की तरफ आपका ध्यान कब और कैसे आकर्षित हुआ?
हम बचपन में तबला सीखते थे। गायकी भी सिखते थे। यूं तो घर में पिता जी, बड़े भाई, चाचा सब संगीत से ही जुड़े हुए थे। आते जाते वो लोग भी सिखाते रहते थे लेकिन पिता जी ने हमें गायकी सिखाने के लिए एक गुरू को जिम्मेदारी दी थी। उनका नाम था श्री एन एल गुणे, वो महाराष्ट्र के थे और बहुत गुणी थे। ये उनका प्यार था जो वो मुझे घर आकर सिखाते थे। इसी तरह मुझे तबला सिखाने की जिम्मेदारी पंडित रघुबर प्रसाद जी की थी। पिता जी खुद भी जब हमें सिखाते थे तो गाकर ही सिखाते थे। उन्हें भी गाने का बहुत शौक था। मुझे याद है कि मुझे तबले से बहुत लगाव हो गया था। तबला मैं काफी बजाता था। पिता जी घबरा गए कि कहीं ऐसा ना हो कि मैं सरोद छोड़ दूं। उनकी इस घबराहट का नतीजा ये हुआ कि जल्दी ही हमारे घर से तबला गायब हो गया। इसके बाद मेरा ध्यान वापस सरोद की तरफ लौटा। मैं अपने घर में सबसे छोटा था। यूं तो पिता जी हर बच्चे पर ध्यान दिया करते थे। हमारे बड़े भाई लोग भी सरोद बजाया करते थे। लेकिन मुझे लेकर पिता जी की अपेक्षाएं बिल्कुल अलग थीं।
आप ऐसा क्यों कहते हैं कि 12 साल की उम्र से ही आप बुजुर्ग बन गए थे
यही वजह कि हम अपने बचपन की आजादी का मजा नहीं ले पाए। हमारे पिता जी बहुत बुजुर्ग थे। हमारे पिता जी के समकालीन कलाकार उस्ताद अब्दुल करीम खान साहब, फैयाज खान साहब और विलायत खान साहब के पिता जी इनायत खान साहब या कंठे महाराज जी जैसे कलाकार हुआ करते थे। मैंने बचपन में हमेशा अपने पिता जी के चेहरे पर दुख देखा था। उन्हें इस बात का दुख था कि उनके समकालीन कलाकारों की अगली पीढ़ी मंच पर आ चुकी थीं। लेकिन हमारे यहां अभी वो जगह खाली थी। पिता जी के जो दोस्त यार आते थे, शिष्य आते थे वो भी यही बात दोहराते थे कि बेटा अब सबकुछ तुम्हें ही करना है…तुम्हें ही करना है। तुम्हें ही इस वंश को आगे चलाना है। लिहाजा 12 साल की उम्र से ही हम बुजुर्ग बन गए, जिम्मेदार बन गए। ये एक जिम्मेदारी का अहसास ही था कि मुझे बचपन से ही इस बात का डर लगा रहता था कि मेरे बारे में कोई गलत बात पिता जी के कानों तक ना पहुंचे। कोई ये शिकायत लेकर पिता जी के पास ना जाए कि मैंने उसे थप्पड़ मार दिया है, पत्थर मार दिया है या सिर फोड़ दिया है। इससे अच्छा है कि हम खुद ही पिट लिया करते थे।
आपका नाम मासूम अली खान था तो फिर आपका नाम अमजद अली खान कैसे रखा गया?
मेरे नाम की कहानी दिलचस्प है। एक रोज एक साधु घर आए थे, उन्होंने मुझसे कुछ सुनाने को कहा। मैंने उन्हें सरोद बजाकर सुनाया। उन्होंने मेरा नाम पूछा, मेरा नाम रखा गया था मासूम। मैंने उन्हें बताया कि मेरा नाम मासूम अली खान है। इस पर उन्होंने कहा- आज से तुम्हारा नाम अमजद है। उस वक्त तक हमें इस नाम का मतलब तक नहीं पता था। बाद में पता चला कि ये एक अरबी शब्द है, ये भगवान का ही नाम है। उस घर से हमें ये नाम मिला। उस घर को आज सरोद घर के नाम से जाना जाता है। उसी घर में हमारी पैदाइश हुई थी। बाद में बहुत से लोगों ने उस घर को लेकर कहाकि उसे होटल बना दीजिए, गेस्ट हाउस बना दीजिए आपको बहुत सारे पैसे मिल जाएंगें लेकिन हमने ऐसा नहीं किया। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारे पिता जी ने हमें सिर्फ संगीत नहीं सिखाया बल्कि जिंदगी को जीने का तरीका भी सिखाया था। उन्होंने इस बात का इल्म बहुत बचपन में दे दिया था कि जायज और नाजायज पैसे के बीच का फर्क क्या होता है। चूंकि उस घर में हमारी शिक्षा दीक्षा हुई थी। वो हमारे लिए बहुत पूज्यनीय जगह है, इसलिए वहां होटल या गेस्टहाउस बनाने का सवाल ही नहीं था। हमने वहां म्यूजियम बना दिया। मैं इसे अपने गुरूओं के प्रति, अपने पूर्वजों के प्रति गुरूदक्षिणा मानता हूं।
पंडित भीमसेन जोशी जी आपको अपना गुरु भाई कहते थे, इस रिश्ते के बारे में कुछ बताइए
पंडित भीमसेन जोशी जी भी वहां गाने के लिए आए हुए थे । मुझे याद है कि वहां दस हजार लोगों के सामने ‘पब्लिकली’ पंडित भीमसेन जोशी ने ये बात कही कि इसी घर में मैं तीन साल रहा हूं। उन्होंने सभी को बताया कि वो खान साहब ये यानि मेरे पिता जी से गायकी सीखते थे। उन्होंने और भी कई गुरूओं से सीखा था लेकिन पिता जी का नाम वो हर जगह लेते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि वो दो राग का खास तौर पर जिक्र करते थे- राग पूरिया और राग मारवा। ये दोनों राग एक ही सुर के हैं, लेकिन दोनों का ‘कैरेक्टर’ अलग है। कहते हैं कि जो शास्त्रीय संगीतकार गाने बजाने में इन दोनों रागों के बीच फर्क कर सकता है, उसे शास्त्रीय संगीतकार माना जाना चाहिए। उस्ताद हफीज अली खां साहब ने ही मुझे ये फर्क समझाया था। अगर आप भीमसेन जी की ‘हिस्ट्री’ देखेंगे तो पाएंगे कि ज्यादातर कार्यक्रमों में उन्होंने या तो पूरिया गाया या फिर मारवा। हमारा उनका रिश्ता बहुत करीब का था। मैं जब भी पूना जाता था, वो मेरा हाथ पकड़ कर मुझे स्टेज पर ले जाते थे। सामने 25,000 लोगों की भीड़ हैं। वहां स्टेज पर जाकर भीमसेन जी पूछते थे, आप लोग जानते हैं कि ये कौन है? ये मेरे गुरू भाई हैं। ये बात को वो खुद ही कहते थे। उनका दिल बच्चे जैसा था। बहुत कोमल ह्दय। उनके अंदर बहुत इंसानियत थी इसीलिए वो भारतीय गायकी का चेहरा बन गए। शास्त्रीय गायक उस दौर में भी बहुत थे, आज भी बहुत हैं लेकिन बड़े गुलाम अली खान साहब और आमिर खान साहब के बाद जो प्यार और इज्जत भीमसेन जोशी जी को मिली उसकी बात ही अलग है। लोगों ने उन्हें सर पर बिठाया।
आपको सरोद सम्राट कहा जाता है, ये टाइटल आपको कैसे, कब और कहां मिला?
11-12 साल की उम्र रही होगी हमारी जब हमें लोगों ने कार्यक्रम के लिए बुलाना शुरू कर दिया था। उस दौर में कार्यक्रमों के बाद जो पैसे हमें मिलते थे वो पैसे हम अपनी मां को देते थे। जिससे घर चलता था। सिर्फ बड़े शहरों में ही नहीं उस दौर में छोटे छोटे शहरो में जैसे मेरठ, खुर्जा, हाथरस, रामपुर जैसी जगहों पर नुमाइशें होती थीं और एक ही स्टेज पर मुकेश जी गा रहे हैं। मैं बजा रहा हूं। बिस्मिल्लाह खान साहब बजा रहे हैं। यामिनी कृष्णमूर्ति डांस कर रही है। वैसे भी उत्तर प्रदेश में बनारस औऱ इलाहाबाद मेरे लिए बहुत खास शहर हैं। इलाहाबाद में प्रयाग संगीत समिति है। उस संस्था ने मुझे बहुत कम उम्र में ही सरोद सम्राट का ‘टाइटिल’ दे दिया था।