पंडित राजन-साजन मिश्रा की जोड़ी की शुरुआत कैसे हुई और दिल्ली आकर इन्हें एक साथ काम करने का मौका कैसे मिला ये कहानी भी दिलचस्प है। छोटी उम्र में ही पंडित राजन मिश्रा की शादी हो गई उनकी एक बेटी भी थी ऐसे में संगीत के साथ साथ जीविका चलाने के लिए पैसे कमाना भी जरुरी था। दिल्ली में चाचा जी रहते थे तो पंडित राजन मिश्रा उनके पास दिल्ली आ गए अच्छी नौकरी भी करने लगे लेकिन फिर एक दिन उनकी किस्मत बदलनी ही थी जब किस्मत में कलाकार बनना लिखा है तो भला कोई भी नौकरी उनके लिए अच्छी कैसे हो सकती है। नौकरी छोड़कर संगीत की ओर दिल्ली में उनके कदम कैसे बढ़े और फिर उस सफर में उनके छोटे भाई साजन मिश्रा कैसे जुड़े ये कहानी बेहद दिलचस्प है जिसे उन्होंने रागगिरी से हुई खास बातचीत में बताया।
आपको बहुत जल्दी अच्छा काम करने का मौका मिला और आपका नाम भी मशहूर होने लगा तो छोटी उम्र में जब नाम कमा रहे होते हैं तो बात ध्यान में रखना सबसे ज्यादा जरुरी होता है?
काशी में जन्म लेने का फायदा ये हुआ कि हम लोग बचपन से ही मंदिरों में गाना शुरू कर चुके थे। हम दोनों भाईयों की परंपरागत संगीत की शिक्षा भी चल ही रही थी। पिता जी कहते थे कि कहीं भी जाओ, अगर तुम लोग देरी से पहुंच रहे हो तो जहां भी जगह मिले वहीं बैठ जाओ। पिता जी का ये कहने का मकसद सिर्फ इतना था कि उस वक्त तक गायकी के क्षेत्र में हम दोनों भाईयों का थोड़ा थोड़ा नाम होने लगा था और वो ये नहीं चाहते थे कि हम किसी कार्यक्रम में देरी से पहुंचे और उसके बाद कूद फांद करके आगे जाकर बैठ जाएं। पिता जी कहते थे कि किसी को भी सुनने जाओ तो हमेशा एक विद्यार्थी बनकर जाओ। कलाकार चाहे नामी हो या ना हो, लेकिन अगर उसे सुनने गए हो तो उसके संगीत का आनंद लो। उसे आलोचक बनकर मत सुनो। लेकिन अगर स्टेज पर गाने के लिए बैठे हो तो फिर सामने अगर उस्ताद भी बैठा है तो उसे शिष्य समझो। उन्होंने हम दोनों भाईयों को इस तरह का आत्मविश्वास दिया लेकिन अहंकार को तोड़कर। संगीत से अलग हम लोगों की पढ़ाई लिखाई भी चल रही थी। 1973 में राजन भैया ने समाज शास्त्र से एमए किया। मैंने बीएचयू से बीए किया।
आपको दिल्ली आने का मौका कब और कैसे मिला?
हम दोनों भाईयों के दिल्ली आने की कहानी भी दिलचस्प है। 1970 में हमारे चाचा गोपाल मिश्रा जी दिल्ली आए थे, आकाशवाणी के एक कार्यक्रम में उन्हें सारंगी बजानी थी। उसी जमाने में सिद्धेश्वरी देवी जी भी दिल्ली आई थीं। चाचा जी के उस कार्यक्रम में दिल्ली के सभी जाने माने कलाकार मौजूद थे। विनय भरतराम जी भी थे। पंडित जी ने उस रात 5 घंटे से भी ज्यादा अकेले सारंगी बजाई थी। हर कोई अचंभित था। चाचा जी की सारंगी सुनकर विनय भरतराम इतने मंत्रमुग्ध हुए कि उन्होंने चाचा जी से दिल्ली में कुछ दिन और रूकने की गुजारिश की। उन्होंने चाचा जी को दिल्ली में ही रुकने के लिए कहा। सिद्धेश्वरी देवी जी के साथ भी चाचा जी ने कई कार्यक्रम किए थे, उन्होंने भी चाचा जी को समझाया। चाचा जी ने कहाकि वो भैया यानी हम लोगों के पिता जी से पूछे बिना ये फैसला नहीं कर सकते हैं। पिता जी ने इसकी मंजूरी दे दी। चाचा जी को कोई संतान नहीं थी तो वो हम दोनों भाईयों को अपनी संतान की तरह ही मानते थे। 1973 में उन्होंने राजन भैया को ये कहकर दिल्ली बुला लिया कि अब वो अकेले यहां नहीं रह सकते हैं। भैया के दिल्ली आने के पीछे की सोच ये थी कि वो यहां नौकरी करेंगे। कभी कभार सिर्फ अच्छे बड़े कार्यक्रमों में गाएंगे, संगीत को कभी करियर नहीं बनाएंगे। राजन भैया की शादी भी बहुत कम उम्र में हो गई थी। सिर्फ 19 साल के थे भैया, उसके बाद उन्हें एक बेटी भी हो गई थी। अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए भी भैया नौकरी ही करना चाहते थे।
दिल्ली में आते ही आपको अच्छी नौकरी भी मिल गयी थी जो आपकी तमाम जरुरतें पूरी कर रही थी तो फिर आपने इतनी अच्छी नौकरी को संगीत साधना के लिए एकदम से छोड़ दिया उस समय आप क्या सोच रहे थे?
चाचा जी ने भैया की नौकरी के लिए विनय भरतराम जी से बात की, उन्होंने भैया को एक कंपनी में ट्रेनी लेबर वेलफेयर ऑफिसर के पद पर रखवा दिया। एक साल के बाद भैया ऑफिसर हो जाते। उसी समय दिल्ली में सतगुरू जगजीत सिंह जी ने नामधारी संगीत महोत्सव कराया। उसमें तमाम बड़े कलाकार थे। चाचा जी के अलावा उस कार्यक्रम में सिद्देश्वरी देवी जी थीं, भीमसेन जी थे, बिरजू महाराज जी थे, अमजद अली खान साहब, विलायत खान साहब थे। उनके एक शिष्य गुरूदेव सिंह जी चाचा जी से ये पूछने के लिए आए कि उन्हें गाड़ी कब चाहिए। उन्होंने देखा कि घर में स्वर मंडल रखा हुआ है, उन्होंने पूछा कि स्वर मंडल किसका है। चाचा जी ने उनको राजन भैया के बारे में बताया। गुरूदेव सिंह जी ने राजन भैया से पूछा कि आप हमारे महोत्सव में गाएंगे, तो भैया ने कहाकि वो तो मेरे साथ गाते हैं लेकिन अलग से भी गा लेंगे। राजन भैया ने उस कार्यक्रम में गाना गाया। उस कार्यक्रम के बाद की कवरेज की कटिंग अब भी मेरे पास है। अगले दिन की हेडलाइन थी- पंडित राजन मिश्रा ने समा बांध दिया। इतने बड़े बड़े दिग्गज कलाकारों के बीच में उन्होंने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। सतगुरू जी ने भैया को बुलाया और पूछताछ की। भैया ने उन्हें अपनी नौकरी के बारे में बताया। भैया की कंपनी कपड़ों की थी, तो सतगुरू जी ने मजाक में ये भी कहाकि देखिए कबीर का कितना जबरदस्त असर है आप पर कबीर भी जुलाहे थे और आप भी जुलाहे बन रहे हैं। उन्होंने भैया से कहाकि आपको गायक बनना है, आपकी सभी जरूरतों को हम पूरा करेंगे। तब भैया ने फैसला किया कि वो नौकरी छोड़ देंगे। विनय भरतराम जी ने इस्तीफे की चिट्ठी लेकर कहा भी कि फैसले पर दोबारा सोचिए। फिर चाचा जी ने रेडियो पर भैया का ऑडिशन कराया। फिर मुझे टेलीग्राम आया कि ‘कम इमीडिएटली फॉर आकाशवाणी ऑडीशन’ तो मैं अपर इंडिया ट्रेन पकड़ कर दिल्ली पहुंचा। हम लोगों के ऑडीशन में जाने से चाचा जी ने मना कर दिया, कहने लगे कि खुद से अपनी जगह बनाओ। उस जमाने में कलाकार के ऑडीशन के वक्त जज के सामने परदा डाल दिया जाता था। हम लोगों के ऑडीशन में तमाम दिग्गज लोग थे। हम लोगों ने राग मालकौंस गाया। एक हफ्ते के बाद फिर रिकॉर्डिंग के लिए बुलाया गया। तब हम लोगों ने ‘तोड़ी’ गाया और ‘पूरिया’ गाया। जब करीब एक महीने बाद नतीजा आया तो पहली बार में ही हम दोनों भाईयों को ‘ए’ ग्रेड मिला और हम लोगों की गायकी बाकयदा शुरू हो गई।