भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत के दिग्गज भाईयों राजन-साजन मिश्र की जोड़ी पूरी दुनिया में मशहूर है। पिछले 5 दशकों से एक साथ इनकी ये बेमिसाल जोड़ी देखकर सभी के मन में एक सवाल तो उठता ही है क्या ये दोनों भाई आपस में लड़ते नहीं है। पंडित राजन-साजन मिश्र से हुई खास बातचीत में हमने उनसे ऐसे कई निजी सवाल किए जैसे इन्हें एक साथ स्टेज पर परफॉर्म करने का मौका कब मिला, जब पहली बार दिल्ली आए तो जीवन में किस तरह की नई मुश्किलों से इनका आमना सामना हुआ और ऐसी क्या वजह है कि ये दोनों भाई इतने लंबे समय से ना सिर्फ साथ में हैं बल्कि इनमें आपस में कभी लड़ाई हुई ही नहीं। तो आइए इन्हीं से जानके इनके जीवन से जुड़ी ये खास बातें
आप दोनों के एक साथ गाना गाने का सबके पहला मौका कब, कहां और कैसे मिला?
हम दोनों भाईयों के जीवन में ये भी कुछ आशीर्वाद ही था कि पहली बार हमें जिस कंसर्ट में गाने का मौका मिला, वो था संगीत सभा। नए कलाकारों के साथ ऐसा बहुत कम ही होता है। हमारे लिए 10 बजे से 11 बजे रात का समय था। उस समय आकाशवाणी के डायरेक्टर जनरल थे- बीसी सेन। हम लोग बिल्कुल ‘यंग आर्टिस्ट’ थे। हमने एक घंटे तक राग ‘पूरिया’ गाया। कार्यक्रम खत्म होने के बाद जब हम लोग चेक लेने के लिए ड्यूटी रूम में गए। उस वक्त हम लोगों की फीस 125 रुपए थी, हम दोनों भाई अंदर से बहुत उत्साहित थे, क्योंकि ये हम दोनों के जीवन में पहला मौका था जब हमें चेक से पैसा मिल रहा हो। ड्यूटी रूम में एक अधिकारी ने हमसे हमारी उम्र पूछी, भैया ने कहा कि आप हमारी उम्र क्यों पूछ रहे हैं। अधिकारी ने जवाब दिया कि डायरेक्टर जनरल ने ही उन्हें हम दोनों भाईयों की उम्र पूछने के लिए कहा है। राजन भैया ने अपनी उम्र 22 और मेरी 17 साल बताई, इसकी जानकारी डायरेक्टर जनरल को दी गई। इसके बाद वहां से जवाब आया कि हम दोनों भाई अगले दिन आकाशवाणी में डायरेक्टर जनरल से जाकर मुलाकात करें। अगले दिन जब हम उनसे मिलने गए तो उनके पीए कपूर साहेब ने हमारी मुलाकात कराई। डायरेक्टर जनरल ने मिलते ही पहली बात कही कि उन्होंने जब हम लोगों का गाना सुना तो उन्हें लगा कि कोई 45-50 साल का कलाकार गा रहा है। जबकि उन्हें जब हमारी उम्र पता चली तो वो दंग रह गए और इसीलिए उन्होंने हम दोनों भाईयों को मिलने के लिए बुलाया था। ये हम लोगों के लिए पहला सबसे बड़ा ‘कॉम्पलीमेंट’ था। उन्होंने तुरंत ही अपने एक अधिकारी को बुलाया और जूनियर स्तर के कलाकारों में हमारा नियमित कार्यक्रम शुरू कराने को बोल दिया। वही रेडियो कार्यक्रम हमारी ‘पॉपुलैरिटी’ की बड़ी वजह बना। इसके बाद हमें आकाशवाणी की ‘चेन बुकिंग’ मिलने लगी। मतलब हम जिस राज्य में जाते थे, वहां 15-16 कार्यक्रम एक साथ। वहां से पैसे भी मिलने लगे।
आप बनारस में रहते थे लेकिन जब आप दिल्ली शिफ्ट हुए तो आपको कई तरह की कठिनाईयां हुई उस मुश्किल दौर के बारे में कुछ बताइए
इसके बाद 1974 का साल आया। सतगुरू सम्मेलन था। उन लोगों ने फिर से भैया से संपर्क किया। राजन भैया ने मेरे भी दिल्ली आने की जानकारी आयोजकों को दी। ऐवान-ए-गालिब में हम दोनों भाईयों ने उनके लिए गाया। सतगुरू जी का स्नेह हम लोगों के साथ हमेशा रहा। ये बड़ो के आशीर्वाद और स्नेह का ही असर था कि हमारा सफर आगे बढ़ता चला गया। अब भी हम संगीत की साधना ही कर रहे हैं, अब भी यही कोशिश करते हैं कि जब हम कोई सुर लगाएं तो वो हमारी बात सुन ले, सही से लग जाए। कोई राग बिगड़े नहीं, क्योंकि हम राग से बड़े नहीं हैं। उसी कोशिश में हम दोनों भाई लगे हुए हैं। कई बार तो श्रोता हमारे लिए ‘सेकंडरी’ हो जाते हैं। हमारी कोशिश होती है कि अपनी गायकी से पहले हम तो आनंदित हों, तभी तो श्रोताओं को आनंद आएगा। बहुत लोग कहते हैं कि जब आप दोनों भाईयों का तारतम्य जुड़ जाता है, जब आप लोग गायकी में डूब जाते हैं तो लगता है कोई अदृश्य किरण हम लोगों को भी आपसे जोड़ रही है। हमारे कई श्रोता कहते हैं कि वो अपनी प्रार्थनाओं में हम भाईयों के लिए दुआ करते हैं। इससे बड़ी उपलब्धि, इससे बड़ी कमाई, इससे बड़ा अवॉर्ड भला क्या हो सकता है। खास तौर पर तब जबकि हम लोग बनारस से आकर दिल्ली में जब ‘सेटल’ हो रहे थे तब कई लोग हम भाईयों के लिए काफी कुछ गलत भी बोलते थे। यहां तक कि लोग हमारे घर का सही पता नहीं बताते थे। रेडियो में हमारे लिए जो चिट्ठियां आती थीं, वो गायब कर दी जाती थीं। लेकिन हम लोगों के चाहने वालों का साया इतना बड़ा था कि सारी मुश्किलें हम तक पहुंचने से पहले ही रोक लेता था।
आप दोनों भाईयों की जोड़ी बेमिसाल है लेकिन ऐसी क्या वजह है कि आप दोनों में कभी लड़ाई नहीं होती?
उन्हीं दुआओं का असर है कि हम पिछले करीब 50 साल से एक साथ गा रहे हैं। अब तो हालत ये है कि एक बीमार पड़े तो दूसरा बीमार पड़ जाता है। एक का मूड खराब हो तो दूसरा अपने आप गुस्से में दिखने लगता है। कई बार लोग सोचते हैं कि हम भाईयों में कभी खटपट नहीं होती होगी, उसकी भी कहानी है। हमारे गुरू ने शिक्षा दी थी कि उनके जाने के बाद राजन मिश्रा, साजन मिश्रा के गुरू होंगे। तब से लेकर आज तक मजे की बात ये है कि मैं उनसे बैठ कर शिक्षा नहीं लेता बल्कि स्टेज पर जब वो गाते हैं तो मैं उनसे सीखता हूं। पिता जी के सामने हम दोनों भाई एक साथ रियाज करते थे। अब कई बार हम दोनों भाई याद करते हैं कि पिता जी छोटा होने के नाते मुझे अक्सर टोकते थे कि सुनो-सुनो। कई बार मुझे गुस्सा आता था कि एक तो कान पकड़कर गाने के लिए ले आए, अब गाने बैठा तो कहते हैं कि सुनो-सुनो। लेकिन अब अहसास होता कि जो सुनने की क्षमता उन्होंने बढ़ाई उससे मेरा सीखना आसान हो गया। अब खुशी इस बात की है हमारी अगली पीढ़ी के बच्चों में भी आपस में बहुत प्यार है। संस्कार है। आज भी हम दोनों भाईयों का पूरा परिवार ज्यादातर मौकों पर साथ खाना खाता है। मैं अपने चाहने वालों से भी अक्सर कहता हूं कि हमारी अगली पीढ़ी के बच्चों लिए भी दुआ करें कि ये सब साथ रहें। ईश्वर इनको सदबुद्धि दे। संगीत की परंपरा के अलावा साथ रहने की परंपरा भी ये लोग सीखें। जो आनंद मुट्ठी में है वो खुली हुई ऊंगलियों में नहीं है। अच्छा लगता है कि अगली पीढ़ी हमारी परंपरा को लेकर चल रही है।