बांसूरी वादक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया के चाहने वाले इस पूरी दुनिया में हैं। उनकी लोकप्रियता का ये आलम है कि उनके एक कॉन्सर्ट के बारे में जैसे ही लोगों को पता चलता है वो हाउसफुल हो जाता है। रागगिरी से हुई खास मुलाकात में जब हमने पंडित हरि प्रसाद चौरसिया से उनके बचपन के बारे में बात की तो उन्होंने अपने कई किस्से हमारे साथ शेयर किए। पंडित जी का बचपन आम बच्चों की तरह नहीं बल्कि था, छोटी सी उम्र में ही अपनी मां को खोने का गम तो था ही लेकिन पहलवान पिता का डर जो ना जाने उनसे ना चाहते हुई भी क्या-क्या गलतियां करवा बैठता था। अपने बचपन से जुड़ी कई बड़ी यादों को उन्होने हमारे साथ शेयर किया। इस खास बातचीत में हुए सवालों को उन्होंने ये जवाब दिया-
पंडित जी आपका बचपन कैसे बिता और आपके बचपन की कोई खास याद जो आप शेयर करना चाहें
मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ था। इलाहाबाद का नाम याद करते ही कुछ बातें जेहन में ताजा हो जाती हैं। पूरा बचपन आंखों के सामने से घूम जाता है। मुझे याद है कि इलाहाबाद में हम जहां रहते थे वहां पूरी दुनिया आती थी। हमारा घर लोकनाथ के पास था। वहां खाने-पीने की एक से बढ़कर एक चीजें मिलती हैं। राम आधार की कुल्फी, हरि की नमकीन खाने लोग जाने कहां-कहां से आते थे। राजा की बर्फी, जलेबी। मेरे घर के बगल में ही भारती भवन की लाइब्रेरी थी। बड़ा अच्छा माहौल था। पास में ही एक व्यायामशाला भी थी। पिता जी पहलवान थे तो वो वहां जाया करते थे। मेरे पिता का नाम वैसे तो श्रीलाल चौरसिया था लेकिन तमाम दंगल प्रतियोगिताएं जीतने की वजह से उन्हें आस पड़ोस के लोग पहलवान साहब ही कहकर बुलाया करते थे। कभी कभी मैं भी वहां जाता था। मेरे घर के पास ही मदन मोहन मालवीय जी का घर भी था। वहां सब्जी खरीदने भी लोग दूर-दूर से आते थे। कुल मिलाकर बहुत चहल पहल वाला मोहल्ला था।
आपने बहुत छोटी उम्र में ही अपनी माता जी को खो दिया और इस घटना ने आपको बचपन पर बेहद गहरा प्रभाव डाला, 5 साल की उम्र के उस बचपन के बारे में अगर आप कुछ बताना चाहें कि वो दौर आपके लिए कितना मुश्किल रहा
जब मैं पांच साल का था तब मेरी मां मुझे छोड़कर चली गई थीं। मैं तो इतना छोटा था कि मुझे कुछ याद भी नहीं। मैं याद रखने वाली उम्र में तो नहीं पहुंचा था लेकिन मां से भी पहले मेरे भाई अचानक दुनिया छोड़ गए थे। ये सबकुछ मेरे पांच साल की उम्र तक पहुंचते पहुंचते हो चुका था। बाद में घरवाले कहते थे कि मां के अचानक इतनी कम उम्र में जाने की वजह वो सदमा था जो उन्हें भाई के जाने से लगा था। मुझे कुछ कुछ याद है कि मां को जब दाह संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था तो लोग कुछ ‘जलाने’ की बात कर रहे थे। मैं इतना छोटा था कि मुझे छोड़कर सबलोग मां के शव को लेकर चले गए थे। अकेले होने की वजह से मैं बहुत रोया था। मैं सबको खोजने घर से निकल गया था। किसी से पूछते पूछते घाट की तरफ गया था। वहां दलदल में फंस गया था। बड़ा भयावह था वह दिन। अगले दिन पिता जी ने मुझे समझाया कि मां की मौत हो गई है। अब वो वापस नहीं आएगी। मुझे ज्यादा कुछ समझ नहीं आया लेकिन अब याद करता हूं तो लगता है कि इन दोनों घटनाओं के बाद पिता जी एकदम टूट से गए थे। पिताजी मेरे भाई को पहलवान बनाना चाहते थे, जो हो नहीं पाया। इस तरह मेरे बचपन की यादें दुखद हैं। हां, जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो बहुत शरारती हो चुका था। होता ये था कि पिता जी काम में व्यस्त रहते थे। मेरा काम सिर्फ शरारत करना होता था।
आपके बचपन के बारे में ये भी कहा जाता है कि आप शरारती थे जिस वजह से आपके पिता जी से आपकी अकसर पिटाई हुआ करती थी
पिताजी का जीवन बहुत अनुशासन वाला था। वो तड़के सुबह उठते थे। भजन गाया करते थे। फिर बादाम पीसते थे। फिर पास के मंदिर में जाया करते थे। वहां से लौटते समय घर के जरूरत की चीजें लाया करते थे। गाय का दूध निकालते थे। व्यायामशाला जाया करते थे। उनके इस ‘शेड्यूल’ का असर ये था कि मुझे कोई देखने वाला या निगरानी करने वाला नहीं था। आप ही सोचिए कि छोटा बच्चा खाली बैठ कर क्या करेगा। वैसे भी बच्चा खाली तो बैठ नहीं सकता है या तो दौड़ेगा भागेगा या फिर किसी को परेशान करेगा। मैं दिन भर यही सब करता रहता था। शाम को जब पिता जी वापस आते थे और अगर कोई उनसे शिकायत करता था तो मुझे मार भी पड़ती थी। पिताजी पहलवान आदमी थे तो थोड़ा दिखाते भी थे कि देखो पहलवान के लड़के को मारा जा रहा है। बचपन की अपनी शरारत का एक किस्सा मुझे याद आ रहा है। हुआ यूं कि पिता जी एक बार पूजा करने के लिए बैठे थे तो केरोसीन खत्म हो गया। उन्होंने मुझसे कहाकि केरोसीन लेकर आओ। मैं केरोसीन लेने निकला। रास्ते में एक जगह बंदर का नाच हो रहा था। मैं घंटों वहां खड़ा होकर बंदर का नाच देखता रहा। मेरे दिमाग से ही उतर गया कि मुझे केरोसीन लेने के लिए भेजा गया है। बाद में जब केरोसीन लेकर घर पहुंचा तो बहुत देर हो गई थी। मैंने अपनी तरफ से बहानेबाजी का कई तरीका अपनाया। कहानियां सुनाई कि वहां बहुत भीड़ थी। लेकिन उस रोज मेरा कोई बहाना चला नहीं। उस रोज भी बहुत पिटाई हुई थी।
आपके पिता चाहते थे कि आप पहलवान बनें लेकिन आप बांसूरी वादक बनें ये सब कैसे हुआ
जैसे हर पिता चाहता है कि उनका बच्चा उनके रास्ते पर चले वैसे ही वो भी चाहते थे कि मैं पहलवान बनूं। बड़े भाई के अचानक जाने के बाद उनकी उम्मीदें मुझसे थीं। लेकिन मुझे पहलवानी से कोई लेना देना नहीं था। एक बार मंदिर में कीर्तन सुना था। वो मन में बैठ गया था। कुछ समय बाद मैंने चोरी छुपे बांसुरी बजाना सीखना शुरू किया। एक दिन पिता जी ने पकड़ा तो बड़ी मार भी पड़ी थी। लेकिन बांसुरी सीखनी थी तो मैं सीखी। जब मैं अपने गुरू के पास सीखने गया तो वहां मुझे उनके घर का काम भी करना पड़ता था। दरअसल, उनकी शादी नहीं हुई थी। उन्हें अगर कोई काम है तो उसे करना मैं अपना कर्तव्य समझता था। अगर मुझे लगता था कि अगर उनसे कुछ पाना है तो उन्हें कुछ देना भी था। पैसे तो मेरे पास थे नहीं कि मैं उन्हें दूं। वैसे वो पैसे कभी मांगते भी नहीं थे। गुरूजी बहुत ही साधारण व्यक्ति थे। कभी कभी कहते थे कि जरा सब्जी लेते आओ। जरा मसाले लेते आओ। जरा मसाले को पीस दो। जरा बर्तन मांज दो। बस ऐसे ही घरेलू काम करने होते थे। वो मुझे प्यार भी बहुत करते थे। कोई भी दिन ऐसा नहीं होता था जब वो मुझे खाना खिलाए बिना खुद खा लें। वो उम्र में भी ज्यादा बड़े नहीं थे, लेकिन गुरू तो गुरू होता है। मेरी नजर में तो वो भगवान जैसे हैं।