बांसूरी वादक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया के नाम के साथ शिवकुमार शर्मा जी का नाम जरुर लिया जाता है वजह ये है कि इन दोनों ने मिलकर ऐसा बेमिसाल काम किया है कि जिसे आने वाले लंबे दौर तक लोग याद रखेंगे। शास्त्रीय संगीत के महारथी दोनों महान कलाकारों ने जो भी किया वो मिसाल बन गया। बॉलीवुड फिल्मों में एक साथ संगीत देना हो या स्टेज पर परफोर्म करना है, सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इनकी जोड़ी सुपरहिट हुई। लोग शिव हरि की जोड़ी के बारे में तो खूब जानते हैं लेकिन इस जोड़ी का नामकरण शिव हरि ही क्यों हुआ हरि शिव या कुछ और क्यों नहीं हुआ ऐसे कई सवाल हैं जो दर्शकों को मन में हैं रागगिरी से हुई खास मुलाकात में पंडित हरि प्रसाद चौरसिया ने अपनी जोड़ी के बारे में कई बातें शेयर की
आपने बॉलीवुड में जिन भी फिल्मों में संगीत दिया वो सुपरहिट हो गया तो अब ऐसी क्या वजह है कि आप बॉलीवुड फिल्मों के लिए काम नहीं करते हैं?
शिव-हरि के तौर पर मेरी और शिवकुमार जी की जोड़ी ने कामयाबी का जबरदस्त दौर देखा। बाद में हम लोगों ने फिल्मों में काम करना छोड़ दिया। इसकी वजह बड़ी साफ थी, अब उस तरह की फिल्में कहां बन रही हैं? अनारकली, मुगल-ए-आजम, बैजू बावरा अब कहां बनती है? हमारे लिए फिल्म संगीत कभी प्राथमिकता नहीं था। हमने फिल्मों का संगीत तब ही किया जब शास्त्रीय कार्यक्रमों से समय मिलता था। दोनों चीजों के बीच हमेशा संतुलन रखा। हां, आज अगर उस तरह की स्तरीय फिल्म हमारे पास लेकर कोई आए तो मैं और शिव जी फिर साथ काम करेंगे। पुराने दौर के जो बड़े संगीतकार अभी हैं भी, उनके काम की फिल्में अब बनती नहीं हैं। आज के जमाने की फिल्मों में काम करके क्यों हम लोग बेकार में जो नाम कमाया था उसे खराब करें। हम लोग म्यूजिक डायरेक्टर बनने के लिए मुंबई आए भी नहीं थे। हमारा काम है क्लासिकल म्यूजिक बजाना। फिल्मी काम आया और अच्छा हुआ तो करेंगे। हम पहले भी दोनों ही फिल्म के ऑफर को सोच समझ कर ही साइन करते थे। यूं तो मैंने एक बांसुरी वादक के तौर पर उस दौर के सभी बड़े संगीतकारों के लिए काम किया था लेकिन बतौर स्वतंत्र संगीत निर्देशक मैंने शिव जी के साथ ही काम किया। फिल्मी संगीत बनाने से मिलने वाले पैसों से आया आत्मविश्वास ही था मैंने रेडियो की नौकरी भी छोड़ दी थी।
पंडित जी शिवकुमार शर्मा जी के साथ आपकी जोड़ी सुपरहिट रही लेकिन इस जोड़ी का नाम शिव-हरि ही होगा ये कब और कैसे तय हुआ?
शिव-हरि बनने की कहानी भी दिलचस्प है। मुझे याद है कि 70 के दशक में हम दोनों की स्वीडन में एक रिकॉर्डिंग थी। उस एल्बम का नाम था जुगलबंदी। जिसमें राग झिंझोटी और राग पीलू था। एल्बम का कवर डिजाइन होना था। कवर पर जब हम दोनों के नाम लिखे गए तो जगह बहुत ज्यादा लग रही थी। हरिप्रसाद चौरसिया और शिवकुमार शर्मा, इतनी ज्यादा जगह सिर्फ नाम में चली जाए तो वो कवर कम पोस्टर ज्यादा लग रहा था। ये तय हुआ कि नाम छोटे कर लिए जाएं। शिव-हरि ही एक विकल्प था। शिव जी का नाम पहले रहे मैं ऐसा चाहता था। अव्वल तो वो मुझसे उम्र में थोड़े बड़े हैं। इसके अलावा बचपन में मेरे जिस भाई की मृत्यु हो गई थी उनका नाम शिव ही था। इसलिए भी मैं चाहता था कि शिव जी के बाद ही मेरा नाम आए। शुरू शुरू में जब हम लोगों ने एक साथ फिल्मों का संगीत देना शुरू किया तो शास्त्रीय जगत से कुछ आपत्तियां भी आईं। कुछ लोगों ने कहाकि क्या हम लोगों ने पैसे की खातिर शास्त्रीय संगीत से दूरी बनाई है? जैसे ही सिलसिला रिलीज हुई और उसका संगीत लोगों ने सुना वो आपत्तियां दूर होती चली गईं। कई लोगों ने हम दोनों से कहाकि हमें फिल्म का संगीत देते रहना चाहिए। इसकी वजह शायद उन फिल्मों के संगीत में मजबूत शास्त्रीय आधार रहा होगा।
शास्त्रीय कार्यक्रमों में अब भी काफी व्यस्तता रहती है। अब भी लगातार दौरे करते रहते हैं। अपने समकालीन कलाकारों और नए कलाकारों से मिलना जुलना चलता रहता है। आपस में हम लोगों का हंसी मजाक भी चलता रहता है। अभी दुबई में एक कार्यक्रम में हम, जसराज जी और शिव जी साथ में थे। हम लोगों की मजाकिया बातें चलती रहती हैं। यहां तक कि कई बार आयोजक भी आकर हल्के फुल्के क्षण साझा करते हैं। अभी हाल ही में बैंगलोर में एक विदेशी बैंड के साथ मेरा कार्यक्रम था। कार्यक्रम के दौरान आयोजक ने आकर स्टेज से मुझसे पूछाकि आपके पिता जी आपका नाम हरिप्रसाद कैसे रखा। उनको कैसे पता था कि आप बांसुरी बजाएंगे, ऐसा हंसी मजाक भी चलता रहता है। मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं कि मुझे अपने बुजुर्ग कलाकारों का बड़ा आशीर्वाद मिला। खासतौर पर पंडित भीमसेन जोशी जी से बड़ा स्नेह मिला। वो बिल्कुल संत थे। किसी भी हाल में हो, अगर तानपुरा लग गया तो ऐसा गाते थे कि दुनिया सुनती रह जाए। लोग उनके बारे में कहते थे कि उन्होंने पी है, लेकिन जब एक बार तानपुरा मिल गया तो उसके बाद उनको सुनकर ऐसा लगता था कि कोई संत ऊपर से आ गया है। अब ऐसे लोग पैदा नहीं होंगे।
आपके बारे में एक और बड़ा दिलचस्प किया है कि एक बार आपको उस्ताद बिस्मिल्ला साहब के साथ स्टेज पर बांसूरी बजाने का मौका मिला लेकिन आपने बड़ी विनम्रता से उस परफॉर्मेंस के लिए इंकार कर दिया, ऐसे मौकों का तो एक कलाकार को इंतज़ार रहता है तो फिर क्या वजह थी कि आपने उनके साथ वो कार्यक्रम नहीं किया
उस्ताद बिस्मिल्ला खान बहुत बड़े कलाकार थे। शहनाई को उन्होंने जन्म दिया और उसे अच्छी अवस्था में पहुंचाया। लोग हमेशा उन्हें याद करेंगे। उनके जाने के बाद शहनाई की हालत अच्छी नहीं है। जिसको देखकर दुख होता है। शहनाई के लिए उन्होंने बहुत बड़ी जगह बनाई। न्यूयॉर्क के एक कार्यक्रम की याद मुझे ताजा है। न्यूयॉर्क में मेरा कार्यक्रम उस्ताद बिस्मिल्ला खान के साथ रख दिया गया। जब मुझे पता चला तो मैंने विनम्रता से बताया कि मैं बिस्मिल्ला खान के साथ नहीं बजा सकता हूं। उनको हम लोग बचपन से बजाते देखते आए हैं। वो बहुत ही बड़े कलाकार हैं। मैं उनके साथ स्टेज साझा करने की हिम्मत नहीं कर सकता। हां, उनके बजाने के बाद कुछ मिनट मैं भी जरूर बजाऊंगा। वहां मौजूद श्रोता इस बात के लिए राजी हो गए। वो मुझे बहुत प्यार करते थे। बनारस में जब कभी मैं कार्यक्रम करता था। वो आगे की लाइन मैं बैठे दिखते थे। हमेशा बहुत दाद देते थे। वाह बेटा वाह। इन लोगों का बडा आशीर्वाद मिला। यूं समझिए कि जब बाबा अलाउद्दीन खान साहब का आशीर्वाद मिल गया तो सभी का आशीर्वाद मिल गया। इस देश को अब दूसरा बिस्मिल्ला खान या दूसरा भीमसेन जोशी नहीं मिलेगा। मैं इन कलाकारों को बहुत ‘मिस’ करता हूं। अब जमाना ही दूसरा आ गया है। अब हर चीज में ‘प्राइज टैग’ लग गया है। उस समय कोई ‘प्राइज टैग’ नहीं था।