राजनायक बनने के मौके को पंडित छन्नूलाल मिश्र को भले ही अपने पिताजी के वजह से गवाना पड़ा हो लेकिन वो अपने उस्ताद से इतना स्नेह करते थे कि वो आज भी उनके घराने का नाम बनाए रखने की पूरी कोशिश करते हैं। पंडित छन्नूलाल मिश्र के लिए शागिर्द से उस्ताद बनने तक का सफर आसान नहीं था। वो जिस घराने में संगीत की शिक्षा लेते थे दरअसल में उनके उस्ताद को उन्ही के आसपास के लोग ये कहते थे कि ये इसे सब कुछ सिखाने की जरुरत नहीं है, बावजूद इसके उनके उस्ताद से गुरु-शिष्य परंपरा को पूरी तरह निभाया और अपनी संतान या छन्नूलाल मिश्र को सिखाने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। गुरु के आशीर्वाद का छन्नूलाल मिश्र ने ऐसा पालन किया कि आज तक वो उनके घराने की इज्जत बनाए हुए हैं। इमानदारी के उस दौर में भी ऐसे कई बेइमान लोग थे लेकिन संगीत के प्रति मिश्र जी का लगाव इतना सच्चा था कि वो अपने गुरु से बेहतर तालीम लेने में कामयाब रहे। लेकिन उन्होंने इस सफर को कैसे पार किया और अपने गुरु से सबसे अच्छे शिष्य कैसे साबित हुए उन्होंने अपने गुरु के लिए क्या खास किया और उनके गुरु उन्हे किस हद तक स्नेह करते थे इन सभी बातों के बारे में पंडित छन्नूलाल मिश्र ने रागगिरी से खास बात की।
आपने अपनी ज़िंदगी संगीत के नाम कर दी लेकिन आपके उस्ताद जिस घराने से थे वहां लोग उन्हें ये कहते थे कि घर के बाहर के लड़के को सब कुछ नहीं सिखाना चाहिए तो क्या इस बात का असर आप पर कभी पड़ा?
मैंने जब एक बार उस्ताद जी के सारे इम्तिहानों को पास कर लिया तो उसके बाद वो मुझे बहुत प्यार करने लगे। मैं दिन भर उनकी सेवा करता था और उनसे सिखता था। गुरू शिष्य के बीच जो रिश्ता होना चाहिए वो हम निभाते थे। देखते देखते कब 8-9 साल निकल गए पता ही नहीं चला। मैंने करीब 9 साल तक उस्ताद जी से शास्त्रीय संगीत की बारिकियों को सीखा। धीरे धीरे उन्हें मेरी लगन और मेरी काबिलियत पर भरोसा हो गया। मेरी गायकी और मेरी गायकी के अंदाज की चर्चा भी होने लगी। उस्ताद जी को इन बातों से बहुत खुशी होती थी। आज भी उस्ताद जी को याद करता हूं तो आंखे नम हो जाती हैं। मेरे कमरे में अब भी उनकी तस्वीर है। कई लोग उस्ताद जी को चुपचाप समझाते भी थे कि घर से बाहर के लड़के को सबकुछ नहीं बताया जाता, लेकिन उस्ताद जी ने मुझे अपनी सगी संतान की तरह सिखाया। ऐसी कोई चीज नहीं थी जो उन्होंने मुझे ना बताई हो। उनके संगीत सिखाने में हद दर्जे की ईमानदारी थी। उन्होंने मुझे संगीत की अथाह दुनिया में सही रास्ते पर चलना सिखाया। मुझे याद है कि जब वो आखिरी सांस ले रहे थे, तो उन्होंने मुझे पुकारा-छन्नू। मैं भागता हुआ गया और उनके सर को अपनी गोद में रख लिया। कुछ ही क्षणों बाद उन्होंने मेरी गोद में ही दम तोड़ दिया, उनके जनाजे को मैंने कंधा दिया। पिता जी-मां की अपेक्षाओं के साथ साथ अब मुझपर उस्ताद जी की अपेक्षाओं को भी पूरा करने की चुनौती थी। मैंने अपनी जिंदगी ही संगीत के नाम कर दी। उस्ताद जी के जाने के बाद मुझे ठाकुर जयदेव सिंह से सीखने का सौभाग्य भी मिला। वो भी संगीत के अद्भुत जानकार थे। उन्होंने मेरी कला को और तराशा।
आप ये क्यों कहते हैं कि आप अपने पिताजी की वजह से राजगायक नहीं बन पाए?
जब हम मुजफ्परपुर में थे, तब का एक और किस्सा है। हुआ यूं कि हमारी गायकी के कुछ साल ही बीते होंगे जब चंपानगर के राजा कुमार श्यामानंद तक हमारी चर्चा पहुंची। उन्होंने खास तौर पर हमारा गाना सुना, उन्हें हमारी गायकी बहुत पसंद आई। उन्होंने पिता जी से कहाकि छन्नूलाल को यहीं छोड़ दीजिए हम उसको राजगायक बनाना चाहते हैं। लेकिन पिता जी मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होंने बहुत ही विनम्रता से कुमार श्यामानंद जी से मना कर दिया, उन्होंने कहाकि वो मेरे बिना नहीं रह सकते हैं, इसलिए वो मुझे राजगायक बनने के लिए वहां नहीं छोड़ सकते हैं। इसके बाद पिता जी मुझे लेकर बनारस आ गए। अब हम काशी नगरी में थे, जहां संगीत के एक से बढ़कर एक दिग्गज थे। लेकिन हमको सभी कलाकारों का बहुत प्यार मिला। उन दिनों की एक घटना मुझे हमेशा याद रहती है। हम सारनाथ में गा रहे थे। हमारे साथ तबले पर संगत करने वाले का तबला अचानक फट गया। ऐसा लगा जैसे किसी ने पूरे रस में बाधा डाल दी हो। मैंने माहौल की गंभीरता को समझते हुए तुरंत वहीं बैठे बैठे पूछा कि कोई है जो मेरे साथ ढोलक बजा सके। उसी भीड़ में सुरजान सिंह नाम के एक कलाकार बैठे थे, उन्होंने ढोलक बजाने के लिए हामी भर दी। मैंने पूरी वही बंदिश गाई, जो तबले के साथ गाई जाती थी। हर कोई हैरान रह गया। बनारस में लोगों को संगीत की अच्छी समझ है, हर कोई इस बात पर ताज्जुब कर रहा था कि मैंने ढोलक की संगत पर कैसे निभा लिया, वो घटना मुझे हमेशा याद रहती है। मुझे आज भी अपना एक रूपये का पहला पारिश्रमिक याद है, जो मुझे मानस की चौपाई गाने पर मिला था। बाद में मैं खूब चौपाई गाता रहा। बनारस में गीत संगीत का माहौल था ही, गुरूजनों का आशीर्वाद और मेरी लगन का नतीजा था कि धीरे धीरे शास्त्रीय संगीत की दुनिया में मेरा नाम होता चला गया। आकाशवाणी से लेकर देशे के अलग अलग शहरों में होने वाले सम्मेलनों में गायकी का न्यौता आने लगा।
पंडित जी ऐसा क्या है बनारस में कि आप एक बार यहां आए और फिर यहां से कभी जाने का आपका मन ही नहीं हुआ?
पिता जी जो चाहते थे उसकी शुरूआत हो चुकी थी। कई बार मुझे ये भी लगता है कि शुरू शुरू में जो घर के माहौल में संगीत की शिक्षा मिली थी, उससे व्यवहारिक ज्ञान परिपक्व नहीं हुआ था। बाद में जब उस्ताद जी का आशीर्वाद मिला तब कहीं जाकर मेरा ज्ञान परिपक्व हुआ। स्वभाविक तौर पर उस ज्ञान के जरिए अपनी पहचान बनाने में बहुत मदद मिली। उसके बाद जब पिता जी बनारस ले आए तो यहां और भी कई नई नई चीजें सुनने और सीखने को मिलीं। बनारस में आप जानते ही हैं कि बहुत से पुराने पुराने कलाकार गाते थे। गायकी में अपनी बात को कहने का उन कलाकारों का अंदाज ही अलग था। सेजिया से सैयां रूठ गइलैं ए रामा… कोयल तोरी बोलियां… जैसी गायकी में बनारस की सुगंध है। जिसकी महक अब भी ताजा है, जो बोल अब भी मेरे कानों में गूंजते रहते हैं। इस शहर का मोह कुछ ऐसा लगा कि फिर हम बनारस के ही होकर रह गए। पिछले जाने कितने सावन यही बीत गए। बनारस की मिट्टी में ही संगीत बसा हुआ है।