बनारस में रची बसीं महान गायिका गिरजा देवी की बढ़ती उम्र के साथ साथ ख्याती भी बढ़ती ही जा रही है। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई पीढ़ीयों को संगीत से जुड़ते हुए देखा है। संगीत की जो शिक्षा उन्हें मिली है वो आज की पीढ़ी से कौसों दूर है, ऐसी क्या वजह है कि गिरजा देवी जिस समय संगीत सीखती थी उस समय उस्ताद उन्हें भरपूर ज्ञान देते थे और आज की पीढ़ी अपने उस्ताद या गुरु से वो ज्ञान अर्जित नहीं कर पाती। नई पीढ़ी की बदलती सोच के बारे में गिरजा देवी जी का क्या कहना है इस बारे में उन्होंने रागगिरी से खास बात की।
आपके चाहने वाले आपको बेहद सम्मान देते हैं तो जब नई पीढ़ी भी आपकी कला को सराहती है तो आप कैसा महसूस करती हैं?
हम अपने को अब भी बूढ़ा नहीं मानते हैं। हमने इसकी आदत डाली है कि खुद को बूढ़ा नहीं मानती। मैं मानती हूं कि हिम्मत से काम करते रहना चाहिए, खास तौर पर संगीत में। आज भी हम स्टेज पर खुद से चढ़ते हैं, खुद से बैठते हैं। किसी का सहारा नहीं लेते। पूरी दिनचर्या का पालन करते हैं। इस उम्र में मेरा सबसे बड़ा सम्मान मेरे चाहने वालों का प्यार है। मैं अपने से छोटे लोगों के दिल में हूं। मैं उम्र में अपने से छोटे, चाहे वो गायक हो, नृतक हों, वादक हो, साहित्यकार हो सबका प्यार पाती हूं। लेकिन मेरे पूरे जीवन में मैंने कभी नहीं सोचा कि मेरा नाम अब बहुत बड़ा हो गया है। बस सुनो और गाओ। जो गुरू ने सीखाया था बस उसी की साधना करते रहो। इस बात की फिक्र हमेशा रही कि लोग हमसे क्या सुनना चाहते हैं। सब प्रभु की कृपा है। सब बड़े कलाकारों का आशीर्वाद है। हमारे पूवर्जों का आशीर्वाद है। जो मेरे चाहने वालों ने हमको इतना प्यार दिया है। आज भी कभी ये दिमाग में नहीं आया कि हम कोई बहुत बड़े कलाकार हो गए हैं। कभी खुद पर गर्व नहीं किया। गर्व का सवाल ही नहीं उठा। जो है सब उसी का है।
आज की पीढ़ी को वो शिक्षा अपने उस्ताद या गुरुओं से क्यों नहीं मिल पाती जिस तरह की शिक्षा आप जैसे महान कलाकारों को मिली?
अब भी बहुत सारी ऐसी चीजें हमारे देश में हैं, जो उस्ताद जी लोगों के साथ चली गई। वो अब सुनाई नहीं देती। हमें हमारे गुरूओं ने भी कई ऐसी चीजें बताईं जो चीजें कोई नहीं जानता। किसी ने नहीं सुनी। लेकिन उन चीजों को बताने के साथ साथ गुरूओं ने कसम भी दी कि जब कोई योग्य शिष्य मिले, सच्चा शिष्य मिले जो उस कला को बेंच ना दे तो उसे ही ये सीखाना। ये वो चीजें हैं जो हिंदुस्तान में अब कुछ ही लोग जानते हैं। राजन साजन मिश्रा हमारे बच्चे की तरह हैं, उनको पता है कि अप्पा के पास क्या खजाना है। वो कहते हैं कि अप्पा आप बाबुल मोरा गाती हैं तो हम दोनों भाई रोने लगते हैं। छंद-प्रबंध, कौल-कलबाना, गुल-नख्श, जैसी चीजें अब कहां सुनने को मिलती हैं। आज कलाकार तराना गा देंगे, दादरा गा देंगे, भजन गा देंगे। यहां तक कि बनारस जैसा ठुमरी और दादरा भी हर कोई नहीं गा सकता है। बनारस का रंग ही अलग है। हम छोटे थे तो कथावाचकों को खूब सुनते थे। वो बताते थे कि बनारस भगवान शिव और पावर्ती को इतना पसंद आ गया कि वो यहीं बस गए। इसीलिए बनारस की बात ही अलग है।
आप गायकी को किस तरह से देखती हैं और नई पीढ़ी से शास्त्रीय संगीत की साधना के बारे में आपका क्या कहना है?
आज मुझे 66 साल हो गए गाते हुए। मैं हर चीज के दो मायने देखती हूं। बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए के भी दो रूप है। लड़की रोती जा रही है। चार कहार मिल डोलियां उठाएं, उसमें भी चार कहार हैं, शव में भी चार लोग ही होते हैं। लड़की के नजरिए से सोचिए तो उसके जाने पर वो कितना रोती है कि उसका घर छूट रहा है दूसरे मायनों में सोचिए कि जब हम संसार से जाते हैं तो लोग कितना रोते हैं। ये तो गायकी के वक्त भावना की बात है, जब जिधर चली जाए और फिर हम किसी की नहीं सोचते। सिर्फ अपने गुरू के बारे में सोचते हैं और जिन्होंने हमें इस धरती पर भेजा उसके बारे में सोचते हैं। मैं मानती हूं कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। अगर आजकल के बच्चे लोग फ्यूजन करते हैं, बैंड बजाते हैं, उछल कूद कर गाते हैं…वो मूल रूप से तो गा ही रहे हैं। बस ये है कि उनको शब्दों का ध्यान रखना चाहिए। शब्दों को अच्छा करें। अच्छे स्वर दें। ताकी विचार में गंदगी ना आए। अगर इस बात का ध्यान नहीं रखा जाएगा तो उन्हें कौन पूछेगा। कोई नाच कर गाए, कूद कर गाए, कोई सो कर गाए हमें दिक्कत नहीं हैं, गाओ ऐसा जिसे सुनकर मन चरित्रवान बने। आने वाली पीढ़ी चरित्रवान बने।
आप आज की पीढ़ी को क्या संदेश देंगी, जिस तरह के बोल आजकल के गानों में होते हैं उनके बारे में आप क्या कहना चाहेंगी?
मेरा मानना है कि साहित्य और संगीत ईश्वर का ही गढ़ा हुआ है। दोनों को समान रूप से रखना चाहिए। ऐसा नहीं कि जो भी शब्द आ गया वो गा दिया। पहले के गुरू लोग बहुत पढ़े लिखे नहीं होते थे। कुछ ऐसी रचनाएं हो सकती हैं, जो शायद उनके मन में आईं और उन्होंने बना दी, लेकिन आज की पीढ़ी तो उसे ठीक कर सकती है। आज के लोग ज्यादा पढ़े लिखे हैं, उनको उन रचनाओं में अगर सुधार की जरूरत है तो करनी चाहिए। मैं मानती हूं कि पिछले सौ साल में जमाना बहुत बदल गया है। हमने अपनी आंखों से एक रुपये में 8 किलों चावल, 16 किलो गेंहू मिलता था, आज एक रुपये की कोई कीमत ही नहीं है। माहौल बदल गया। खान पान बदल गया। दूध-दही बदल गया। आज पैसा कमाना लोगों की जरूरत है। लेकिन बस ये समझिए कि जैसे आप रोज रोज बर्गर खाकर जिंदा नहीं रह सकते हैं। जिंदा रहने के लिए चावल दाल खाना होता है, जो खाकर हम पले बढ़े हैं। वैसे ही भले ही आज हजार जगह का साहित्य आ गया हो, हजार जगह का संगीत आ गया हो, लेकिन हमें अपनी संस्कृति नहीं छोड़नी चाहिए। उनकी अच्छी चीजें ले लीजिए लेकिन अपने संस्कार, अपनी संस्कृति को कभी मत छोड़िए।