छन्नूलाल मिश्र जी का गाने का अंदाज़ सबसे निराला है। वो जब गाते हैं उस समय सुरों से ज्यादा ध्यान उनका इस बात पर होता है कि श्रोतागण उनके गायन से खुश हैं या नहीं। अगर श्रोताओं को उनका गायन पसंद आए तो वो उसे अपनी सफलता मानते हैं। लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत की परिभाषा को उन्होंने अपने शब्दों में जिस तरह से पिरोया है वो बेमिसाल है। कुछ लोग शास्त्रीय संगीत को मुश्किल मानते हैं ऐसे लोगों को शास्त्रीय संगीत की सही समझ देकर इस संगीत के प्रति उनका लगाव कैसे बढ़ाया जाए पंडित जी इस कोशिश में निरंतर लगे रहते हैं और यही वजह है कि जब वो स्टेज पर गाना गाने के लिए बैठते हैं तो वो उसे साथ साथ में समझाते भी हैं ताकि श्रोतागण उनसे संगीत को पूरी तरह समझकर उसका आनंद ले पाएं।
बनारस में ऐसा क्या खास पसंद आया आपको कि आप बनारस के ही होकर रह गए?
मैं आज भी सभी से कहता हूं कि आजमगढ़ मेरी जन्मभूमि है, लेकिन बनारस मेरी कर्मभूमि है। पिछले 4 दशक की यादों का अद्भुत आनंद है। मुझे याद है कि बनारस में एक चैती सम्मेलन होता था। उसको गुलाबाड़ी भी कहते थे। एक साथ दस-दस कलाकार बैठते थे। संगीत के माध्यम से ही लोग अपनी बात कहते थे। एक कलाकार ने अपनी बात अपने अंदाज में कही, दूसरे ने अपने अंदाज में। आप सोच कर देखिए एक तरफ बिसमिल्लाह खान बैठे हैं शहनाई लेकर, एक तरफ नारायण मिश्रा और बच्चा लाल मिश्रा अपनी सारंगी के साथ बैठे हैं। एक कोना किशन महाराज ने तबले के साथ संभाला हुआ है। अब एक कलाकार ने अपने बोल बनाए, दूसरे ने अपने। अरे क्या बताए क्या गजब का मजा आता था, लेकिन अब वो मजा नहीं रहा।
क्या आपको लगता है कि संगीत का ये नया रूप शास्त्रीय संगीत के असल रूप पर प्रभाव डाल रहा है?
संगीत में अब भी नया काम हो रहा है। आजकल भी लोगों के बोल बनाने का अंदाज अलग है, लेकिन पुराने लोगों के कहने का अंदाज ही अलग था। पुराने लोग अब हमारे बीच नहीं रहे, एक वजह ये भी है कि संगीत का रूप बदलता चला गया, बल्कि बिगड़ता चला गया। काशी के संगीत का मतलब है ठुमरी, दादरा, चैती, चैता, घाटो। आज भी मुझे याद है कि बिसमिल्लाह खान साहेब किस तरह शहनाई पर बजाते थे- भैया मोरे आए सावनवा में ना जइबो ननदी। अब आप कजरी सुनिए तो वो बात नहीं रही। शब्द और अर्थ कई मायनों में फूहड़ होते जा रहे हैं। घाटो तो अब कम ही सुनने को मिलता है। चैती बच गई है, लेकिन काफी हद तक अपभ्रंश रूप में। पहले चैती का मतलब था- चैत की निंदिया रे, अरे जियरा अलसाने हो रामा मतलब चैत की नींद में आलस सा हो जाता है। अब अपभ्रंश है अरे झूलनी में लगली नजरिया ओ रामा। पहले संगीत में साहित्य का बहुत ध्यान रखा जाता था। जैसे “चैत मास बोले रे कोयलिया ओ रामा मोरे रे अंगनवा”
क्या आप भी ये मानते हैं कि शास्त्रीय संगीत कठिन है और इसे सीखना मुश्किल है?
बनारस में देहात के इलाकों में अब भी चैता होता है। चैता उसको कहते हैं जब भगवान राम का जन्म होता है, चैत रामनवमी को, तो उस वक्त क्या गाते हैं-चैता। चैता पुरूष है, चैती स्त्री है। चैता ज्ञान है, घाटो में योग वियोग दोनों होता है। घाटो बैराग है। चैती भक्ति है। ऐसे ही कजरी होती है। आजमगढ़ की कजरी। मिर्जापुर की कजरी। बनारस की कजरी, छपरा की कजरी। हम जब गाते हैं तो मंच से लोगों को इन सब का फर्क भी बताते चलते हैं। इसीलिए लोग कहते हैं कि पंडित जी को सुनने में मजा आता है। संगीत वही है जो लोगों को समझ में आए ऐसा नहीं कि एक सुर पकड़ कर बैठ गए तो उसी पर जमे हुए हैं। हम लोगों के यहां चुटकुला मशहूर है कि एक पंडित जी ‘पा’ और ‘नी’ का विस्तार करने लगे, विस्तार करते करते इतना विस्तार कर दिया कि वहां बैठे श्रोताओं में कुछ लड़के भाग कर पानी लेकर आ गए कि पंडित जी को प्यास लग गई है। शास्त्रीयता दिखाने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन वो श्रोताओं को अच्छी लगनी चाहिए। उन्हें समझ आनी चाहिए। उनके दिल को छूनी चाहिए। शास्त्रीय गायन में बंदिश होती है, लेकिन अब बंदिश को सोच कर बनाना चाहिए, वो सुंदर हो…लोगों को अच्छी लगे। “आए सजन मोरे मंदिरवा”…ये राग हंसध्नवि में है। ये बंदिश हमने बनाई है। ये श्रृंगार रस है, भक्ति रस है। “जय दुर्गे जगदंबे भवानी” मेरा मानना है कि बेसुरे को सुर में लाना हमारा कर्तव्य है। हमारा उद्देश्य यही है कि शास्त्रीय संगीत को इतना सरल करके गाया जाए कि साधारण जनता को भी हमारी बात समझ में आ जाए। “ना गोप ना गोपी ना श्याम ना राधा…ना साजन ना गोरी…खेले मसाने में होरी, दिगंबर खेले मसाने में होली” की लोकप्रियता इसी बात का सबूत है।
आप लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत में किसी को कैसे फर्क समझाते हैं?
मेरा मानना है कि बिरहा भी अगर सुर में गाया जाए तो अच्छा लगता है, लेकिन ख्याल गायकी भी अगर बेसुरी तरह से गाई जाए तो अच्छी नहीं लगती है। अब आप कजरी का फर्क देखिए। मिर्जापुर में कहते हैं कि “गोरिया पाएं नहीं सैयां के सवनवा में.. जब से गए परदेस, कोई भेजे ना संदेस…गोरिया सोचे बैठ अपने भवनवा में” ये बात बिरहन कह रही है, इसमें बोल कम बनाए जाते हैं। हम लोगों के बनारस की कजरी में बोल बनाते हैं “सजनी छाई घटा घनघोर…हमरे सांवरिया नहीं आए”। आजमगढ़ की कजरी के बोल हैं “सावन भादो की निसरी अधियरिया…कजरिया खेले जाइबे हो नैहरवा…इसके जवाब में पुरूष कहता है कि- जो तू धनिया नैहर चली जईबू, दूसर हम लाइब हो मोरी धनिया, फिर स्त्री कहती है- जो तू सैयां रे दूसर ले अईबो, जहरवा हम खाबै हो नैहरवा। धनिया का मतलब है-स्त्री। छपरा की कजरी के बोल हैं – सावन भदउंवा के बरसे ल पानी। लगल बड़ी काई ओही पनघटवा। हम सभी को ये समझना होगा कि लोक संगीत सबसे प्राचीन संगीत है। पहले लोकमत है और फिर वेद मत क्योंकि पहले हम पैदा हुए फिर हमने वेद पढ़ा। पैदा होते ही कौन सा संगीत होता है- वो है लोक संगीत। उसका नाम है सोहर। खेती के समय गेहूं की फसल की कटनी हो रही है- “आइल गोहूंवा के कटइवा मोरी बारी धनिया” अब लोग इस तरह का लोग संगीत नहीं गाते हैं।