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पंकज उधास की गज़लों की बात करें तो उन्हें समझना बेहद आसान होता है, सादगी और सरलता से गायी हुई उनकी गज़लों का कोई जवाब नहीं। हालांकि उन्होंने एक से बढ़कर एक गज़लें गायी हैं लेकिन उनमें से जो गज़ले सबसे ज्यादा पॉपुलर हुईं वो शराब पर गायी हुई गज़ले रहीं। वैसे इसके पीछे की क्या कहानी है ये आगे आपको रागगिरी के इस exclusive interview में आगे बता चने वाला है साथ ही उर्दू भाषा से उनका परियच कैसे हुआ और फिल्म नाम के गाने चिट्ठी आयी है ने कैसे उनके करियर की पूरी तस्वीर को बदल डाला आइए इन सभी सवालों से जवाब भारत के मशहूर गायक पंकज उधास से ही जानते हैं।

उर्दू भाषा से आपका परिचय कैसे हुआ, क्योंकि आज गज़ल गायक हैं और आपकी गज़लों में जिस तरह के लफ्ज़ों का इस्तेमाल होता है वो लाजवाब हैं

1980 में मेरा पहला अल्बम आया आहट। मेरे एक बहुत अजीज दोस्त थे-शेख आदम आबुवाला। मैंने अपने एल्बम में उनकी लिखी कुछ गजलें भी गाई हैं। वो ‘सिंगल’ थे। उन्होंने शादी नहीं की थी। उम्रदराज थे। उनकी पूरी जिंदगी उर्दू शायरी के साथ ही गुजरी। वो मेरे पास खूब आते थे। हम घंटों साथ बैठकर उर्दू भाषा, उर्दू साहित्य और शायरी की बातें किया करते थे। उनके साथ बैठकर मैंने आठ से दस हजार गजलें पढ़ी होंगी। उनके साथ बैठकर गजलें पढ़ने में जो मुझे सबसे ज्यादा फायदा हुआ वो ये कि मैं उर्दू साहित्य से काफी परिचित हो गया। गजल गायकी में अगर आपको करियर बनाना है तो उर्दू साहित्य से परिचित होना बहुत जरूरी है। किसी गजल को जब आप महसूस करके गाएं और इससे उलट सिर्फ कागज पर लिखकर उसे गा दें तो दोनों में जमीन आसमान का फर्क है। गजल गायकी की खूबसूरती ही यही है कि जब तक आप गजल के एक एक लब्ज को समझ कर और अहसास करके नहीं गाते ना आपको मजा आता है ना ही सुनने वाले को। गजल के साथ भी वो न्याय नहीं है। इस लिहाज से अब मैं देखता हूं तो मुझे लगता है कि शेख आदम आबुवाला की संगत मेरे लिए आशीर्वाद की तरह रही। उस दौर में हमने उर्दू के आला शायरों को पढ़ा। दाग से लेकर गालिब तक। इसके अलावा गजल गायकी के जो उस्ताद थे उन्हें मैंने खूब सुना। इसके बाद ये बात समझ आई कि अगर गजल गायकी की दुनिया में अपनी पहचान बनानी है तो कुछ ऐसा ‘क्रिएट’ करना होगा जो अपना हो। यानी लोग आपकी गजल सुने तो पहचान लें कि ये पंकज उधास की गजल लें।

आपकी गज़लें बेहद खूबसूरत होती है और उनके अल्फाज़ बेहद आसान, इसके पीछे की कहानी क्या है?

ये सोचकर जब हमने गजलों को चुनना शुरू किया कि कौन कौन सी गजलें गानी हैं तो उसमें भी शेख आदम आबुवाला साहब मेरे साथ होते थे। मुझे याद है कि शेख आदम आबुवाला ने एक दिन मुझे एक पुराने शायर नूह नारवी की एक गजल सुनाते हुए कहा कि देखो ये कितनी ‘सिंपल’ गजल है लेकिन कितनी खूबसूरत है। उन्होंने कहाकि इस गजल में दरअसल गजल की आत्मा बसती है। वो गजल थी- आप जिनके करीब होते हैं, वो बड़े खुशनसीब होते हैं। इसी गजल के बाद हम दोनों ने तय किया कि ऐसी ही गजलें गाएंगे जो आसान हों, सुनने में भी आसान लगे। गजल के अल्फाज ऐसे हों कि हर कोई उसको पहचान सके। साथ साथ उसे महसूस भी कर सके। ये मूल बातें थीं जिसकी वजह से मेरा अपना एक स्टाइल बना। इस दौरान मैंने कई गजलें ऐसी भी गाईं जिसका मौजूं शराब था। लेकिन वो महज एक इत्तिफाक था। मैंने कभी ये सोचकर नहीं गया कि शराब के मौजूं पर गजल गाऊंगा तो लोगों को पसंद आएगी। यहां तक कि मैंने जब वो गजल गाई कि सबको मालूम है मैं शराबी नहीं फिर भी कोई पिलाए तो मैं क्या करूं वो गजल भी मैंने इसलिए गाई क्योंकि वो गजल मुझे पसंद आई। इस गजल की सादगी मुझे पसंद आई। ये समझ कर नहीं गाया कि ये शराबियों के लिए गा रहा हूं या ये उन लोगों के लिए गा रहा हूं जो शराब नहीं पीते।

हालांकि आपने बहुत सारी गज़लें गायी है लेकिन फिर भी शराब पर गायी हुई आपकी गज़लें ही सबसे ज्यादा पॉपुलर हुई, इसकी क्या वजह मानते हैं आप

इसे मैं अपनी बदकिस्मती भी मानता हूं कि मेरी गजलों को शराब से जोड़कर देखा गया। मेरी गजल गायकी के 28 साल पूरे हो गए हैं। इन सालों में मेरे सत्तर से ज्यादा एल्बम बाजार में आए। इन सारे एल्बम में से अगर शराब पर गाई गई गजलों को छांटकर अलग किया जाए तो 20-22 गजलें ही होंगी। बाकि की सैकड़ों गजलें ऐसी हैं जो अलग अलग मौजूं पर हैं। हां ये जरूर है कि उस दौर में जिस म्यूजिक कंपनी के साथ मैं जुड़ा हुआ था। जो मेरा म्यूजिक मार्केट करती थी। मैंने एक बार गजल का एल्बम रिकॉर्ड करके म्यूजिक कंपनी को दे दिया। तो उसका कॉपीराइट कंपनी का होता है। उन लोगों ने क्या किया कि अलग अलग एल्बम में शराब पर गाई गई मेरी गजलों को लेकर एक नया एल्बम निकाल दिया- शराब। अगला एल्बम निकाल दिया-पैमाना। इसका असर ये हुआ कि लोगों को लगने लगा कि पंकज उधास सिर्फ शराब पर गजलें गाता है। इसी वजह से उसकी गजले धूम मचा रही हैं। जबकि सच्चाई ये है कि मेरी तमाम ऐसी गजले और गीत बहुत पसंद किए गए जिसमें शराब का जिक्र ही नहीं है। जिन्हें शराब पर गाई गई मेरी गजलें पसंद हैं उन्हें मैं रोक तो सकता नहीं। कभी कभी इस बात का अफसोस भी होता है कि मैंने जिंदगी में इतना ‘सीरियस’ काम भी किया है मैंने 1990 में उमर खय्याम की रूबाईयों का अनुवाद किया। उसे रिकॉर्ड किया। उस एल्बम का नाम था- रूबाई। आज रूबाई का जिक्र कोई नहीं करता लेकिन उसे एक तरफ उसका घर एक तरफ मयकदा जरूर याद है। ये मेरे वश की बात नहीं।

आपकी पहचान एक गज़ल गायक के रूप में तो खूब थी लेकिन फिर भी क्या आप मानते हैं कि फिल्म नाम में आपने जो गाना गाया चिट्ठी आयी है उसने आपके पूरे करियर की तस्वीर ही बदल डाली?

इस बात में भी कोई शक नहीं है कि भले ही इन गजलों के लिए कुछ लोगों ने मेरी आलोचना की लेकिन ये सभी गजलें खूब सुनी गईं। खूब पसंद की गईं। बड़ी बड़ी महफिलों में, बड़े बड़े मंचों पर इन गजलों की फरमाइश की गई। आज भी इनकी फरमाइश होती है। एक तरफ उसका घर एक तरफ मयकदा सबसे ज्यादा अफगानिस्तान में ‘पॉपुलर’ है। अफगानिस्तान में मेरे लाखों की तादाद में फैंस हैं। ये उनकी सबसे पसंदीदा गजल है। मैं कहीं भी जाऊं अगर वहां ऑडिएंस में अफगानी लोग बैठे हैं तो सबसे पहले फरमाइश होती है- एक तरफ उसका घर एक तरफ मयकदा। खैर, गजलों की इस दुनिया से थोड़ा अलग 1986 में जब मैंने फिल्म नाम के लिए ‘चिट्ठी आई है’ है गाया तो उसके बाद तो मेरे करियर की तस्वीर ही बदल गई।

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