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मोहनवीणा आपने क्यों बनाया और इसे बनाने की कहानी क्या है?

मेरे स्वभाव में शुरू से ही प्रयोग करना था। मैं थोड़ा विद्रोही किस्म का था भी। शायद इसीलिए साज भी मैंने नया लिया। उस पर भी प्रयोग किया। मेरा हमेशा से ही मन था कि मैं एक ऐसा साज बनाऊं जिसमें सितार, सरोद, वीणा, सारंगी, संतूर सभी की ध्वनि आए वो भी शास्त्रीय संगीत के साथ। शास्त्रीय संगीत में भी गायकी अंग मतलब जो गायन है वो मैं उस नए साज पर बजाएं। मोहनवीणा में मैंने तंत्रकारी अंग और गायन अंग दोनों का समावेश किया। मैं ऐसा मानता था कि इन दोनों के समावेश के बाद ही मेरा संगीत पूरा होगा। मोहनवीणा बनाने की कहानी बड़ी दिलचस्प है। मेरे पिता जी से संगीत सीखने के लिए एक युवती जर्मनी से आई थीं। जब वो वापस जाने लगीं तो मैंने उनसे उनका गिटार ले लिया। उनके जाने के बाद मैंने गिटार के साथ प्रयोग करना शुरू किया। उसमें नए तार लगाए। अपनी सोच समझ से कुछ खूटियां भी लगाईं। गिटार में जो तार पहले से लगे थे मैंने उन्हें हटा दिया और सितार और सरोद के तार को उसमें लगाना शुरू कर दिया। ये 1967 की बात है। यानि करीब करीब पचास साल बीत गए। उसी वक्त इस ‘इंस्ट्रूमेंट’ के भारतीयकरण की शुरूआत हुई। फिर बाद में इसमें मैंने तुंबा लगाया। बीस तार लगाए और जैसा वाद्यंत्र में बनाना चाहता था वैसा बनाया। फिर इस तरह इस वाद्ययंत्र का नाम मोहनवीणा पड़ा।

mohan veena

18 साल की उम्र मेंं जब पहली बार अखबार में आपकी तस्वीर छपी तो आपको कैसा महसूस हुआ और ये पल आपके जीवन में कैसे आया?

उस वक्त मेरी उम्र 16 साल के आस पास थी। जब मैंने मोहनवीणा बजाना शुरू किया। फिर 1970 से मेरे संगीत कार्यक्रमों की शुरूआत हुई। हमारे यहां जयपुर में एक कमल सिंह जी रहते थे। मुंबई में उनकी एक संस्था थी- संगीत महफिल। वो किसी काम से जयपुर आए हुए थे। उन्हें हमारे पूरे परिवार के बारे में पता चला। एक दिन मैं रियाज कर रहा था तो वो घर चले आए। उस समय फोन या मोबाइल का दौर तो था नहीं कि कोई किसी से वक्त लेकर आए तो वो सीधे ही घर चले आए थे। उन्होंने थोड़ी देर बैठकर मेरा रियाज सुना। उसके बाद उन्होंने मेरे माता-पिता जी से कहाकि वो मुंबई में मेरा कार्यक्रम रखना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि मुझे वहां ‘इंट्रोड्यूस’ करें। मुझे अब भी याद है कि इस तरह मुझे मेरा पहला कार्यक्रम मिला। वो कार्यक्रम मुंबई में हुआ। अगले दिन मुंबई के एक अंग्रेजी अखबार में खबर छपी, जिसका सार था कि अठारह साल के लड़के ने महफिल लूटी। वो हेडलाइन मुझे अभी तक याद है। अपने नाम और फोटो को अखबार में देखकर मुझे अपार खुशी हुई। इस बात से भी बहुत खुशी हुई कि मैं जयपुर से मुंबई जाकर कार्यक्रम कर रहा हूं। इसके बाद यानि मेरे पहले ही कार्यक्रम के बाद मुझे एचएमवी कंपनी ने ऑफर दे दिया कि वो मेरा रिकॉर्ड निकालेंगे। उस वक्त पर वो मेरे लिए बहुत बड़ी कामयाबी थी क्योंकि एचएमवी उस दौर की बहुत बड़ी कंपनी थी जो कलाकारों के रिकॉर्ड्स निकालती थी। इसी कार्यक्रम को करने पर मुझे पहली बार पैसा भी मिला। मुझे याद है कि उस कार्यक्रम के लिए मुझे चार सौ रुपए मिले थे। उस दौर में चार सौ रुपए बहुत अच्छी रकम मानी जाती थी। मुझे याद है कि मेरे उस कार्यक्रम में एक सेठ जी भी आए थे, उनका नाम था कंदोई जी। उन्होंने मुझे उस कार्यक्रम के लिए सौ रुपये का ईनाम अलग से भी दिया था। उस समय सत्तर के समय में सौ रुपए भी बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी। उस कार्यक्रम से कुल पांच सौ रुपए मिले जो मेरी पहली कमाई थी। मैंने जब पिता जी को वो पैसे दिए तो वो बहुत खुश हुए। पिता जी ने कहा- ये संगीत की तुम्हारी पहली कमाई है लेकिन संगीत को कमाई का जरिया मत बनाना। जो पैसा खुद से आए आने देना। पैसे के पीछे मत भागना। उनकी दी हुई वो सीख आज भी मेरे कानों में रहती है। कितनी बार ऐसा होता है कि कुछ कार्यक्रमों में मेरे लिए अपेक्षाकृत औसत इंतजाम होते हैं लेकिन मैं मना नहीं करता। ऐसा इसलिए कि ऐसे कार्यक्रमों से शास्त्रीय संगीत को बढ़ावा मिलता है। अभी अगर मैं मना कर दूंगा तो कई नए श्रोता शास्त्रीय संगीत को सुनने से महरूम रह जाएंगे इसलिए मैं पैसों के पीछे नहीं भागता। मुझे मां की दी हुई सीख भी हमेशा याद रहती है। वो कहती थीं कि सबसे प्यार करो सभी की इज्जत करो। वो कहती थीं कि हर इंसान में कुछ ना कुछ ऐसी खासियत जरूर होगी जो मेरे अंदर नहीं होगी। उसकी इज्जत करनी चाहिए। उसकी शक्ल, उसके गुण, उसकी लिखावट सब कुछ अलग अलग है। इसलिए उससे तुलना करने की बजाए उसकी इज्जत करो। पिता जी से सीखने के बाद एक स्टेज ऐसी भी आई जब ‘मैटेरियल’ इकट्ठा हो गया था अब बस उसकी साधना करनी थी। ‘मैटेरियल’ तो इकट्ठा हो गया लेकिन अपनी ‘बिल्डिंग’ आपको खुद ही बनानी पड़ेगी। मेरे पास में संगीत का खजाना तो आ गया था लेकिन साज पर कैसे कंट्रोल हो कैसे जो बात मैं सोच रहा हूं वो मेरे साज पर आ जाए अभी इस प्रक्रिया पर मेहनत करना बाकी था। तब 1983 में मैं पंडित रवि शंकर जी का शिष्य बना। उन्होंने मुझे गंडा बांधा। उन्होंने मुझसे कहाकि तुम तो पहले से ही कार्यक्रम करने वाले कलाकार हो तुम्हें कुछ बोलने की जरूरत ही नहीं है। मैंने उनसे कहा कि पंडित जी हर इंसान के जीवन में एक ऐसा वक्त आता है जब वो ‘सरेंडर’ करना चाहता है, मैं भी खुद को समर्पित करना चाहता हूं। मुझे आपसे बढ़कर कोई इंसान दुनिया में मिला ही नहीं। इसके बाद मैंने पंडित रविशंकर जी से सीखा। जब मुझे 1994 में ग्रैमी अवॉर्ड मिला तो वो बहुत खुश हुए। कहने लगे कि ये जो तुम्हें संगीत का इतना बडा अवार्ड मिला है। ये मेरे लिए ‘फैमिली अफेयर’ हो गया है। 1971 में पंडित जी को भी ग्रैमी अवॉर्ड मिला था।

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