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अप्पा के नाम से मशहूर गिरिजा देवी का बचपन बेहद लाड प्यार के साथ बिता। बचपन में वो अपने अपने पिता के साथ ज्यादा रहा करती थी उनके पिता उन्हें भले ही खेलने के लिए गुड़िया लाकर देते थे लेकिन वो उनमें हमेशा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की छवि देखा करते थे उन्हें लगता था कि उनकी बेटी नहीं बल्कि एक काबिल संतान है जिसे हर तरह की शिक्षा मिलनी चाहिए। बचपन में लड़कों की तरह पहनावा करने से लेकर घोड़ा चलाना, तीर कमान चलाना सब उन्होंने सीखा। तो ऐसी ही बचपन की कुछ दिलचस्प बातों से लेकर उनके जीवन में संगीत की शुरुआत तक के सभी किस्से आइए उन्हीं से जानते हैं

बचपन में आपके पिता आपको झांसी की रानी क्यों बनाना चाहते थे जबकि आप तो गुड़ियों के साथ खेलना बेहद पंसद करती थी?

बचपन में हम बहुत शरारती तो नहीं थे, लेकिन बहुत सारी चीजों के बारे में जानने की इच्छा बहुत होती थी। मन करता था कि सबकुछ पता रहे, इसलिए हम अपने घर के बड़े लोगों से, दादी से, मां से पापा से हर चीज के बारे में पूछते रहते थे। बचपन में ही सब कुछ जान लेने की चाहत थी। मुझे गुड़ियों का बहुत शौक था। मुसीबत ये थी कि गुड़िया बोलती नहीं थी, मैं उससे बात करना चाहती थी, उसे हंसाना चाहती थी लेकिन वो हंसती नहीं थी। मुझे लगता था कि गुड़िया बोले तो दो चार सवाल उससे भी किए जाएं, लेकिन ऐसा नहीं हो पाता था। लेकिन गुड़ियों का शौक बचपन से ही बहुत था। पापा भी मुझे बहुत मानते थे, हम जो कहते थे वो वही करते थे। गुड़ियों के शौक के अलावा बाकी पापा मुझे एकदम लड़कों की तरह रखते थे। तैरना, घोड़े पर चलना, मार पीट करना, तलवार चलाना, खिलौने वाले तीर धनुष चलाना। हमने अपने बचपन में इन सारी बातों के अलावा और कुछ किया ही नहीं। गांव में घोड़ा चलाया, तीर कमान चलाया। बड़ा मजा आता था। इन बातों के लिए मुझे कभी डांट भी नहीं पड़ती थी, क्योंकि ये सारी आदतें पिता जी ने ही डालीं थीं। वो शायद मुझे दूसरी लक्ष्मी बाई बनाने वाले थे।

बचपन में आप लड़को की तरह रहती थी उन्हीं की तरह कपड़े भी पहनती थी ऐसा क्यों था?

हमारे पिता जी जमींदार थे। बनारस में बच्चों को पढ़ाने लिखाने आए थे। जब हम तीन साल के हुए तो मेरी छोटी बहन का जन्म हुआ, इसलिए हम पापा के साथ ही पलते थे। उन्हीं के साथ रहकर पढ़ाई करते थे। पापा के साथ रहते रहते ही मेरे अंदर भी बहुत सारी आदतें लड़कों जैसी हो गईं थीं। कपड़े लत्ते से लेकर तमाम आदतों तक। मुझे अच्छी तरह याद है कि दस बरस तक हमने सिर्फ पायजामा कुर्ता और कोट पैंट पहना। लड़कों की तरह। हमने बचपन में कभी फ्रॉक नहीं पहनी। 11 साल के हुए तब मां ने पहली बार साड़ी पहनाई। हमने आज तक सलवार कुर्ता नहीं पहना। आपको जानकर हैरानी होगी कि हम जानते ही नहीं कि सलवार कुर्ता क्या होता है। पैंट शर्ट से सीधा साड़ी पहनी और अब तक साड़ी ही पहनते आ रहे हैं। मेरे बचपन में नर्सरी का जमाना तो था नहीं, पहला दर्जा, दूसरा दर्जा इस तरह की कक्षाएं हुआ करती थीं। उसी में हम पढ़ते चले गए। उसी समय मेरी गायकी की शुरूआत भी हुई। हुआ यूं कि मेरे पिता जी को भी गाने का शौक था। वो खुद भी बाकायदा संगीत सीख रहे थे, इसीलिए उन्हीं का असर हमारे ऊपर भी पड़ा। पिता जी सुबह चार बजे उठकर गाते थे, हम भी उनको बड़े शौक से सुनते थे। पापा जो गाते थे, वही बाद में हम गुनगुनाते थे। इस तरह बचपन की छोटी मोटी शैतानियों के साथ साथ संगीत की नींव पड़नी भी शुरू हो गई। धीरे धीरे संगीत में बहुत मजा आने लगा। हम पापा के साथ रहते ही थे। जब हमारी उम्र करीब पांच साल की रही होगी, तब से ही हम संगीत से अच्छी तरह जुड़ गए। उस वक्त का मुझे थोड़ा थोड़ा याद आता है कि हमारे गुरू स्वर्गीय पंडित सरजू प्रसाद जी ने हमें संगीत की शिक्षा देनी शुरू की थी। पिता जी उऩको बाबा कहते थे, तो वो हमारे दादा हो गए। मैंने उनसे सीखना शुरू किया और बचपन से ही गायकी में मेरा मन लगता चला गया। पापा कभी कभी पढ़ाई के लिए टोकते थे। लेकिन मेरा मन ज्यादा संगीत में ही लगता था। पहले दर्जे में जाने के बाद हमने पांचवे दर्जे तक पढ़ाई की, लेकिन उसके बाद एक रोज हमने घबरा कर कह ही दिया कि अब हम नहीं पढेंगे सिर्फ गाना गाएंगे। संगीत की शिक्षा तो हम ले ही रहे थे। इसका असर ये हुआ कि इन पांच सालों में हमने मेहनत करके कई सारे राग सीख लिए थे। उनका बाकयदा अभ्यास किया करते थे। 10 बरस की उम्र तक पहुंचते पहुंचते ख्याल, टप्पा जैसी चीजें भी एक एक करके हमने सीख लिया था। सही मायनों में देखा जाए तो हमारा बचपन भी गायकी में ही चला गया। वक्त बीतता गया और हम बड़े होते गए। हमारी उम्र करीब 15 साल रही होगी, तब तक हम पंडित सरजू प्रसाद जी से सीखे। जिन्होंने नींव बनाकर दी, उन्होंने गले में स्वर बनाकर दिया। गले में स्वर कैसे घूमते हैं उन्होंने बताया, सबकुछ उन्होंने करके दिया।

बचपन में आसपास के लोग आपके संगीत सीखने के खिलाफ क्यों थे और आपके पिता ने सबका विरोध कर आपको संगीत की संपूर्ण शिक्षा के लिए कैसे प्रेरित किया?

उस दौर में बहुत से लोगों ने मेरे पिता जी से ये भी कहा कि आप गांव के रहने वाले हैं, शहर में आकर अपनी बेटी को संगीत सीखा रहे हैं। लड़कियों का गाना बजाना यहां नहीं चलेगा। यहां बहुत बड़ी बड़ी गायिकाएं पहले से हैं। पिता जी ने कहाकि मेरी बेटी का मन है तो वो संगीत सिखेगी। उस वक्त उनको लगता था कि क्या पता शादी के बाद मेरा संगीत छूट जाए, इसलिए वो टोका टाकी नहीं करते थे। बल्कि जो कोई टोकाटोकी करता था तो वो बिल्कुल खुलकर कहते थे कि मेरी बेटी का  मन है तो वो संगीत सीखेगी। हम अपनी बेटी को कोई पैसे कमाने के लिए संगीत नहीं सीखा रहे हैं, वो अपने शौक के लिए सीख रही है। बल्कि पिता जी मेरी हौसला अफजाई करते थे। उन्हें पता था कि मुझे गुड़ियों का शौक है तो अगर हम एक गाना सीखते थे तो एक गुड़िया मिलती थी। दो गाना सीखते थे तो दो गुड़िया मिलती थी। उस जमाने में एक गुड़िया की कीमत एकाध रुपये होती थी। ये उनकी और मेरे गुरू की ही देन है कि हम आज यहां तक पहुंचे। बचपन में महारानी लक्ष्मी बाई की तरह लड़ाकू रहे लेकिन विद्या सीखी, संगीत की शिक्षा भी ली और सबसे बड़ी बात व्यवहारकुशलता सीखी, ये सब उनकी ही देन थी।

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